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Thursday, July 30, 2020

Durga Dwatrinsha NaamaMala Lyrics in hindi दुर्गा द्वात्रिंश नामावली

Maa durga
Devi Durga

यह स्तोत्र मार्कण्डेय पुराण के देवी माहात्म्य से लिया गया है तथा इस लेख के कुछ भाग गीताप्रेस (गोरखपुर) की पुस्तक देवी दुर्गा सप्तशती (Learn More) से प्रेरित हैं, इस पुस्तक को अमेजोन से खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें - दुर्गा सप्तशती (मात्र 59 रूपए)

। अथ दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला ।

दुर्गा दुर्गतिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी।
दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी।

दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा।
दुर्गमज्ञानदा, दुर्गदैत्यलोकदवानला ।।

दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी।
दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता ।।

दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी।
दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गामार्थस्वरूपिणी।।

दुर्गमासुरसन्हंत्री दुर्गमायुधधारिणी।
दुर्गमाङ्गी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी।।
दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी।।

नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः।
पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न संशयः।। 
 
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हिंदी अर्थ-
एक समय कि बात है, ब्रम्हा आदि देवताओं ने पुष्प आदि विविध उपचारों से महेश्वरी दुर्गा का पूजन किया। इससे प्रसन्न होकर दुर्गतिनाशिनी कहा- 'देवताओं ! मैं पूजन से संतुष्ट हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो, माँगो, मैं तुम्हें दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु भी प्रदान करुँगी।' 

दुर्गा का यह वचन सुनकर देवता बोले - 'देवी ! हमारे शत्रु महिषासुर को,जो तीनों लोकों के लिए कंटक था, आपने मार डाला, इससे सम्पूर्ण जगत स्वस्थ एवं निर्भय हो गया। आपकी ही कृपा से हमें पुनः अपने अपने पद की प्राप्ति हुई। 

आप भक्तों के लिए कल्पवृक्ष हैं,  हम आपकी शरण में आये हैं। अतः अब हमारे मन में कुछ भी  अभिलाषा शेष नहीं है। हमे सब कुछ मिल गया; तथापि आपकी आज्ञा है, इसलिए हम जगत की रक्षा के लिए आपसे कुछ पूछना चाहते हैं। 

महेश्वरि!कौन सा ऐसा उपाय है, जिससे शीघ्र प्रसन्न होकर आप संकट में पड़े हुए जीव की रक्षा करती है।  देवेश्वरि! यह बात सर्वथा गोपनीय हो गोपनीय हो तो भी हमें अवश्य बतावें।'

देवताओं के इस प्रकार प्रार्थना करने पर दयामयी दुर्गादेवी ने कहा- 'देवगण! सुनो- यह रहस्य अत्यंत गोपनीय और दुर्लभ है । मेरे बत्तीस नामों कि माला सब प्रकार की आपत्ति का विनाश करने वाली है । तीनों लोकों में इसके सामान दूसरी कोई स्तुति नहीं है।

 यह रहस्यरूप है। इसे बतलाती हूँ, सुनो- 
१- दुर्गा, २- दुर्गातिशमिनी, ३- दुर्गापद्विनिवारिणी, ४- दुर्गमच्छेदिनी, ५- दुर्गसाधिनी, ६- दुर्गनाशिनी, ७- दुर्गतोद्धारिणी, ८- दुर्गनिहंत्री, ९- दुर्गमापहा, १०- दुर्गमज्ञानदा, ११- दुर्गदैत्यलोकद्वानला, १२- दुर्गमा, १३- दुर्गमालोका, १४- दुर्गमात्मस्वरूपिणी, १५- दुर्गमार्गप्रदा, १६- दुर्गमविद्या, १७- दुर्गमाश्रिता, १८- दुर्गमज्ञानसंस्थाना, १९- दुर्गमध्यानभासिनी, २०- दुर्गमोहा, २१- दुर्गमगा, २२-दुर्गामार्थस्वरूपिणी, २३- दुर्गमासुरसन्हंत्री, २४- दुर्गमायुधधारिणी, २५- दुर्गमाङ्गी, २६- दुर्गमता, २७- दुर्गम्या, २८- दुर्गमेश्वरी, २९- दुर्गभीमा, ३०- दुर्गभामा, ३१- दुर्गभा, ३२- दुर्गदारिणी। 

जो मनुष्य मुझ दुर्गा कि इस नाममाला का पाठ करता है, वह निसंदेह सब प्रकार के भय से मुक्त हो जायेगा। '

कोई शत्रुओं से पीड़ित हो अथवा दुर्भेद्य बंधन में पड़ा हो, इन बतीस नामों के पाठ मात्र से संकट से छुटकारा पा जाता है। इसमें तनिक भी संदेह के लिए स्थान नहीं हैं।

यदि राजा क्रोध में भरकर वध के लिए अथवा और किसी कठोर दंड के लिए आज्ञा  युद्ध में शत्रुओं द्वारा मनुष्य घिर जाये अथवा वन में व्याघ्र आदि हिंसक जंतुओं के चंगुल में फँस जाये, तो इन बतीस नामों का एक सौ आठ बार पाठ मात्र करने से वह संपूर्ण भयों से मुक्त हो जाता है। 

विपत्ति के समय इसके सामान भय नाशक उपाय दूसरा नहीं है। देवगण! इस नाममाला का पाठ करने वाले मनुष्यों को कभी कोई हनी नही होती। अभक्त, नास्तिक और शठ मनुष्य को इसका उपदेश नहीं देना चाहिए। जो भारी विपत्ति में पड़ने पर भी इस नामावली का हज़ार, दस हज़ार अथवा लाख बार पाठ स्वयं करता या ब्राम्हणों से करता है, वह सब प्रकार कि आपतियों से मुक्त हो जाता है। 

सिद्ध अग्नि में मधुमिश्रित सफ़ेद तिलों से इन नामों द्वारा लाख बार हवन तो मनुष्य सब विपत्तियों से छूट जाता है। इस नाममाला का पुरश्चरण तीस हज़ार का है।

पुरश्चरणपूर्वक पाठ करने से मनुष्य इसके द्वारा संपूर्ण कार्य सिद्ध कर सकता है। मेरी सुन्दर मिटटी कि अष्टभुजा मूर्ति बनावे, आतों भुजाओं में क्रमशः गदा, खडग, त्रिशूल, बाण, धनुष,कमल, खेट(ढाल) और मुद्गर धारण करावे। 

मूर्ति के मस्तक में चन्द्रमा का चिन्ह हो, उसके तीन नेत्र हो, उसे लाल वस्त्र पहनाया गया हो, वह सिंह के कंधे पर सवार हो और शूल से महिषाशुर का वध कर रही हो, इस प्रकार कि प्रतिमा बनाकर नाना प्रकार कि सामग्रियों से भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करे।

मेरे उक्त नामों से लाल कनेर के फूल चढाते हुए सौ बार पूजा करे और मंत्र जप करते हुए पुए से हवन करे। भांति-भांति के उत्तम पदार्थ भोग लगावे। इस प्रकार करने से मनुष्य असाध्य कार्य को भी सिद्ध कर लेता है। जो मानव प्रतिदिन मेरा भजन करता है, वह कभी विपत्ति में नहीं पड़ता। '

देवताओं से ऐसा कहकर जगदम्बा वहीं अंतर्ध्यान हो गयीं। दुर्गा जी के इस उपाख्यान को जो सुनते है, उन पर कोई विपत्ति नहीं आती। समाप्त...  

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Friday, June 26, 2020

दुर्गाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम् Shree Durga Ashtottara Shatanama Stotram Lyrics

Devi Durga
श्री दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र (अष्टोत्तर शतनामावली) दुर्गा सप्तशती के अंतर्गत एक मन्त्र है, यह स्तोत्र देवी भगवती के 108 नामों का वर्णन करता है. भगवान् शिव ने इन 108 नामों की व्याख्या की है (इन नामों का अर्थ बताया है).

Benefits of 108 names of Durga- भगवान शिव कहते हैं कि जो इन नामों का पाठ करता है या जो इनका मात्र श्रवण कर लेता (सुन लेता) है, भगवती दुर्गा उस व्यक्ति पर प्रसन्न हो जाती हैं और उसका कल्याण करती हैं.

जो भी व्यक्ति देवी का निश्छल मन से ध्यान करके इस स्तोत्र के द्वारा पूजन करता है, वह निश्चय ही सिद्धि को प्राप्त होता है और उसे धन-धान्य, सभी पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं.

यहाँ दुर्गा देवी 108 नामों का हिंदी अर्थ सहित (lyrics) वर्णन किया गया है-


श्री दुर्गायै नमः

श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्


ईश्वर उवाच

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने ।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ।1।

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी ।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ।२।

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः ।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः ।३।

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी ।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः।४।

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा ।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ।५।

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती ।
पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनि ।६।

अमेयविक्रमा क्रूरा सुंदरी सुरसुन्दरी ।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता ।७।

ब्राम्ही माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा ।
चामुंडा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः।८।

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा ।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना ।९।

निशुम्भशुम्भहननी  महिषासुरमर्दिनी।
मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ।१०।

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी ।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा।११।

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी ।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः।१२।

अप्रौढ़ा चैव प्रौढ़ा च वृद्धमाता बलप्रदा ।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ।१३।

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी ।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ।१४।

शिवदूती कराली च अनंता परमेश्वरी ।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रम्हवादिनी ।१५।

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम ।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ।१६।

धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च ।
चतुर्वर्गं तथा चांते लभेन्मुक्तिं च शास्वतीम ।१७।

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम् ।
पूजयेत परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टाकम्।18।

तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि ।
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ।19।

गोरोचनालक्तकुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण ।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ।20।

भौमावस्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते।
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम् ।21।

इति श्री विश्वसारतन्त्रे दुर्ग्राष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम्

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108 Names of Durga, Meaning-

शंकरजी पार्वती जी से कहते हैं-
श्लोक 1- कमलानने! अब मैं अष्टोत्तरशतनाम का वर्णन करता हूँ, सुनो; जिसके प्रसाद (पाठ या श्रवण)- मात्र से परम साध्वी भगवती दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं.

श्लोक 2- ॐ सती, साध्वी, भवप्रीता (भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली), भवानी, भवमोचनी (संसार बंधन से मुक्त करने वाली), आर्या, दुर्गा, जया, आद्या, त्रिनेत्रा, शूलधारिणी.

श्लोक 3- पिनाकधारिणी (शिव का त्रिशूलधारण करने वाली), चित्रा, चंडघंटा (प्रचंड स्वर से घंटानाद करने वाली), महातपा (भारी तपस्या करने वाली), मन (मनन-शक्ति), बुद्धि (बोधशक्ति), अहंकारा (अहंता का आश्रय), चित्तरूपा, चिता, चिति (चेतना).

श्लोक 4- सर्वमंत्रमयी, सत्ता (सत्-स्वरूपा), सत्यानन्दस्वरूपिणी, अनंता (जिनके स्वरुप का कहीं अंत नहीं), भाविनी (सबको उत्पन्न करने वाली), भाव्या (भावना और ध्यान करने योग्य), भव्य (कल्याणरूपा), अभव्या (जिससे बढ़कर भव्य कहीं नहीं है), सदागति.

श्लोक 5- शाम्भवी (शिवप्रिया), देवमाता, चिंता, रत्नप्रिया, सर्वविद्या, दक्षकन्या, दक्षयज्ञविनाशिनी

श्लोक 6- अपर्णा (तपस्या के समय पत्ते को भी न खाने वाली), अनेकवर्णा (अनेक रंगों वाली), पाटला (लाल रंग वाली), पाटलावती (गुलाब के फूल या लाल फूल धारण करने वाली), पट्टाम्बरपराधीना (रेशमी वस्त्र पहनने वाली), कमलमंजीर-रंजनी (मधुर ध्वनि करने वाले मंजीर को धारण करके प्रसान रहने वाली)

श्लोक 7- अमेयविक्रमा (असीम पराक्रम वाली), क्रूरा (दैत्यों के प्रति कठोर), सुंदरी, सुरसुन्दरी, वनदुर्गा, मातंगी, मतंगमुनिपूजिता.

श्लोक 8- ब्राह्मी, माहेश्वरी, ऐन्द्री, कौमारी, वैष्णवी, चामुण्डा, वाराही, लक्ष्मी, पुरुषाकृतिः.

श्लोक 9- विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, नित्या, बुद्धिदा, बहुला, बहुलप्रेमा, सर्ववाहनवाहना.

श्लोक 10- निशुम्भ-शुम्भहननी, महिषासुरमर्दिनी, मधुकैटभहन्त्री, चंडमुंडविनाशिनी.

श्लोक 11- सर्वासुरविनाशा, सर्वदानवघातिनी, सर्वशास्त्रमयी, सत्या, सर्वास्त्रधारिणी.

श्लोक 12- अनेकशस्त्रहस्ता, अनेकास्त्रधारिणी, कुमारी, एककन्या, कैशोरी, युवती, यति.

श्लोक 13- अप्रौढ़ा, प्रौढ़ा, वृद्धमाता, बलप्रदा, महोदरी, मुक्तकेशी, घोररूपा, महाबला.

श्लोक 14-  अग्निज्वाला, रौद्रमुखी, कालरात्रि, तपस्विनी, नारायणी, भद्रकाली, विष्णुमाया, जलोदरी.

श्लोक 15- शिवदूती, कराली, अनंता (विनाशरहिता), परमेश्वरी, कात्यायनी, सावित्री, प्रत्यक्षा, ब्रम्हवादिनी.

श्लोक 16- देवी पार्वती ! जो प्रतिदिन दुर्गा जी के इस अष्टोत्तर शतनाम का पाठ करता है, उसके लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है.

श्लोक 17- वह धन, धान्य, पुत्र, स्त्री, घोडा, हाथी, धर्मं आदि चार पुरुषार्थ तथा अंत में सनातन मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है.

श्लोक 18- कुमारी का पूजन और देवी सुरेश्वरी का ध्यान करके पराभक्ति के साथ उनका पूजन करे, फिर अष्टोत्तरशतनाम का पाठ आरम्भ करे.

श्लोक 19- देवि! जो ऐसा करता है, उसे सब श्रेष्ठ देवताओं से भी सिद्धि प्राप्त होती है. राजा उसके दास हो जाते हैं. वह राज्यलक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है.

श्लोक 20- गोरोचन, लाक्षा, कुंकुम, सिन्दूर, कपूर, घी (अथवा दूध), चीनी और मधु- इन वस्तुओं को एकत्र करके इनसे विधिपूर्वक यंत्र लिखकर जो विधिग्य पुरुष सदा उस यंत्र को धारण करता है, वह शिव के तुल्य (मोक्षरूप) हो जाता है.

श्लोक 21- भौमवती अमावस्या की आधी रात में, जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र पर हो, उस समय इस स्तोत्र को लिखकर जो इसका पाठ करता है, वह सम्पत्तिशाली होता है.

इस प्रकार दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र पूरा हुआ.
 
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Question on The Hindu Prayer-

Sunday, March 22, 2020

Vedokta Ratri Suktam with Meaning in Hindi


वेदोक्त रात्रि सूक्त ऋग्वेद के १०वें मंडल के १०वें अध्याय के 127वें सूक्त के अंतर्गत लिखा गया है। यह ऋग्वेद की 8 ऋचाएं हैं जिनमे रात्रि अर्थात रात की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी का स्तवन ( आराधना ) होता है। दुर्गा सप्तशती पाठ के प्रारम्भ और अंत में "वेदोक्त देवी सूक्त" के पाठ के साथ इस स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत शुभ माना जाता है। यहाँ इस रात्रि सूक्त का उच्चारण हिंदी अर्थ सहित दिया गया है।

अथ वेदोक्तं रात्रि सूक्तम्

विनियोग: - ॐ रात्रीत्यद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः, सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः।
 मंत्रः -
ॐ रात्रीव्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः। विश्वा अधि श्रियोऽधित।1।
ओर्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्वतः। ज्योतिषा बाधते तमः ।2।

अर्थ-   महत्तत्त्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रिरूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिए समस्त विभूतियों को धारण करती हैं।१।
ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को, नीचे फैलने वाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं, ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं।२।

निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती। अपेदु हासते तमः ।3।
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वयः ।4।

अर्थ-   परा चिच्छक्तिरूपा रात्रिदेवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषादेवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार का नाश हो जाता है।३।
ये रात्रिदेवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आनेपर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं- ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं।४।

नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः। नि श्येनासश्चिदर्थिनः ।5।
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा नः सुतरा भव ।6।

अर्थ-   उस करुणामयी रात्रि देवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़ने वाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करने वाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं।५।
हे रात्रिमयी चिच्छक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिए सुख पूर्वक तरने योग्य हो जाओ- मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ।६।

उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव यातय ।7।
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे ।8।

अर्थ-   हे उषा! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी ! सब और फैला हुआ यह अज्ञानमय कला अन्धकार मेरे निकट आ पहुंचा है। तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो- जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी मिटा दो।७।
हे रात्रिदेवी! तुम दूध देने वळील गौ के समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ।  परम व्योमस्वरूप परमात्मा की पुत्री! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँती मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो।८। 

।। इति श्री वेदोक्तं रात्रि सूक्तं सम्पूर्णम।।

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देवी कवच ( दुर्गा सप्तशती )


 रात्रि सूक्त का पाठ करने के बाद देव्यथर्वशीर्ष (देवी अथर्वशीर्ष स्तोत्र) का पाठ अत्यंत शुभ माना जाता है, यद्यपि सपतशती के अंग के रूप में इसका उल्लेख नहीं हुआ है तथापि यदि इसका पाठ शुभ फल देता है। इसे यहाँ पढ़ें- देव्यथर्वशीर्षम हिंदी अर्थ सहित
 
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अवश्य पढ़ें: दुर्गा सप्तशती (सभी स्तोत्र, मन्त्र)

Saturday, January 18, 2020

सप्तश्लोकी दुर्गा- Ath Saptashloki Durga in Hindi lyrics

।। अथ सप्तश्लोकी दुर्गा ।।

   इस सप्तश्लोकी ( सात श्लोकों से बने ) स्तोत्र का पाठ दुर्गा सप्तशती पाठ के पहले किया जाता है। सप्तश्लोकी स्तोत्र में दुर्गा सप्तशती के अध्यायों का सार है। यहाँ इस स्तोत्र का संस्कृत उच्चारण हिंदी अर्थ के साथ दिया गया है।  यह इस प्रकार है-

शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः।।
देव्युवाच-
शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते।।
 विनियोग-
ॐ अस्य श्री दुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।1।
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः,
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणी का त्वदन्या,
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता।2।

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्रयंबके गौरि नारायणि नमोस्तु ते।3।
शरणागतदीनार्तपरित्राणपराणये।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते।4।

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तु ते।5।
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा,
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां  न विपन्नराणां,
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।6।

सर्वबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ।7।
।।इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा संपूर्णा।।

अर्थ (हिंदी अनुवाद)-
शिव जी बोले- हे देवि! तुम भक्तों के के लिए सुलभ हो और समस्त कर्मों का विधान करने वाली हो। कलियुग में कामनाओं की सिद्धि हेतु यदि कोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणी द्वारा समयक् रूप से व्यक्त करो।
देवी ने कहा- हे देव! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है। कलियुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाला जो साधन है वह बतलाऊँगी, सुनो ! उसका नाम है 'अम्बास्तुति'।
[विनियोग]- ॐ इस दुर्गा सप्तश्लोकी स्तोत्र मंत्र के नारायण ऋषि हैं, अनुष्टुप छंद हैं, श्रीमहाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवता हैं, श्री दुर्गा की प्रसन्नता के लिए सप्तश्लोकी दुर्गापाठ में इसका विनियोग किया जाता है।

१- वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियोंके भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में दाल देती हैं।
२- माँ दुर्गे! आप  पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता  और भय हरने वाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो।

३- नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। तुम्हे नमस्कार है।
 ४- शरण में आये हुए दिनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है।
 ५- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है।

६- देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो।  जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपात्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं।
७- सर्वेश्वरी! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।
।इस प्रकार दुर्गा सप्तश्लोकी स्तोत्र पूरा हुआ।

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Sunday, January 5, 2020

तन्त्रोक्तं रात्रि सूक्तम संस्कृत, हिंदी अर्थ, lyrics

तंत्रोक्त ( तांत्रिक ) रात्रि सूक्त दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में श्लोक 70 से श्लोक 90 तक दिया गया है, यह सूक्त भगवती योगमाया जो भगवान विष्णु की शक्ति हैं, की स्तुति में ब्रह्मा जी ने रचित किया था और भगवती से मधु-कैटभ को मारने के लिए भगवान् विष्णु को निद्रा से जगाने के लिए विनती की थी. इस स्तोत्र का संस्कृत उच्चारण और अर्थ इस प्रकार है-

अथ तन्त्रोक्तं रात्रि सूक्तम्

ॐ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्.
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः .1
ब्रह्मोवाच 

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका.
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता. 2

अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः.
त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा. 3

त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्.
त्वयैतत्पाल्यते देवी त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा.4

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूप च पालने.
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोअस्य जगन्मये. 5

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः.
महामोह च भवती महादेवी महासुरी. 6

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी.
कालरात्रिर्महरात्रिर्मोह्रात्रिश्च दारुणा. 7

त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा.
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च. 8

खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा.
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डपरिघायुधा. 9

सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी.
परापराणां  परमा त्वमेव परमेश्वरी. 10

यच्च किञ्चित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके.
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा .11

यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्.
सोअपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः .12

विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च.
कारितास्ते यतोअतस्वां ख स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् .13

सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि सन्स्तुता.
मोहयैतो दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ .14

प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु.
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ.15
इति रात्रिसूक्तम्

Raatri Suktam meaning in Hindi-
१. जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेजःस्वरुप भगवान् विष्णु की अनुपम शक्ति हैं.
२. ब्रह्माजी कहते हैं- देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषट्कार हो, स्वर भी तुम्हारे ही स्वरुप हैं. तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो. नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार- इन तीनों मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो.
३. इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो, देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो.
४. देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो. तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है. तुमसे ही इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो.
५. जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा अल्पान्त के समय तुम संहार रूप धारण करने वाली हो.
६. तुम्ही महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो.
७. तुम्हीं तीनो गुणों को उत्पान करने वाली सबकी प्रकृति हो. भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो.
८. तुम्ही श्री, तुम्ही ईश्वरी, तुम्ही ह्रीं और तुम्ही बोधस्वरूपा बुद्धि हो. लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्ही हो.
९. तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो. बाण, भुशुण्डी और परिघ- ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं.
१०. तुम सौम्य और सौम्यतर हो- इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य और सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दर हो. पर और अपर- सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्ही हो.
११. सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत-असत जो कुछ वस्तुएं हैं और उन सब की जो शक्ति है, वह तुम्ही हो. ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?
१२. जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं उन भगवान् को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है?
१३. मुझको, भगवान्  शंकर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है. अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है?
१४. देवि! तुम तो अपने इन उदार भावों से ही प्रशंसित हो. ये जो दोनों दुधुर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो.
१५. जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही निद्रा से जगा दो और साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो.

इति रात्रिसूक्तम्

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Thursday, June 13, 2019

Devi Atharvashirsha Stotram in Sanskrit,

maa durga devi atharvashirsham

Devi Atharvashirsha Stotra ( देवी अथर्वशीर्षम ) अथर्ववेद से लिया गया है, लेकिन मूल रूप से यह ऋग्वेद से जुड़ा है। इस स्तोत्र का पाठ दुर्गा सप्तशती पाठ के पहले किया जाता है, यहाँ देवी अथर्वशीर्षम हिंदी अर्थ सहित दिया गया है।

देवी अथर्वशीर्ष स्तोत्रम-

।अथ श्री देव्यथर्वशीर्षम।
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ।।1।।
साब्रवीत्- अहं ब्रह्म्स्वरुपिणी । मत्तः प्रकृति पुरुशात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ।।2।।
अहमानन्दानानन्दौ । अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये । अहं पञ्च्भूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ।।3।।

वेदोऽहमवेदोऽहम् । विद्याहमविद्याहम् । अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ।।4।।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ।। 5।।
अहं सोमं तवष्टारं पूषणं भगं दधामि । अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ।।6।।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते । अहं राष्ट्री सङ्ग्मनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् । अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । य एवं वेद । स दैवीं संपदमाप्नोति (sampadmaapnoti ) ।।7।।

ते देवा अब्रुवन्- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।।8।।
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफ़लेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः ।।9।।

देवीं वाचमजनयन्त  देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ।।10।।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्  ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ।।11।।

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो       देवी         प्रचोदयात् ।।12।।
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वाजयन्त भद्रा अमृतबन्धवः ।।13।।

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम्  ।।14।।
एषाऽऽत्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा ।
एषा श्रीमहाविद्या । य एवं वेद स शोकं तरति ।।15।।

नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ।।16।।

सैपाष्टाै वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः ।
सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च ।
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः ।
सैषा सत्त्रजस्तमान्सि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररुपिणी ।
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः । सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि ।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी । तामहं प्रणौमि नित्यम् ।।
पपापहारिणीं देवीं भक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ।।17।।

वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ।।18।।
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः ।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ।।19।।

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसन्युक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः ।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ।।20।।

ह्रित्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् ।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ।।21।।
नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् ।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुन्यरूपिणीम् ।।22।।

यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता ।
यस्या लक्ष्यं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा ।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका ।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ।।23।।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ।।24।।

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तां दुर्गा दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् ।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ।।25।।

 इदमर्थर्वशीर्षं योऽधीते स पन्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति-शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति।
शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः।
दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते ।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ।।26।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाश्यति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाश्यति ।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । निशीथे तुरीय संध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति ।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।
भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति ।
स महामृत्युं तरति य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।।

। इति श्री देव्यथर्वशीर्षम् संपूर्णम् ।

Devi Atharva Sheersham Meaning-

हिंदी अर्थ:
ॐ सभी देवता देवी के समीप गए और नम्रता से पूछने लगे- हे महादेवि! तुम कौन हो? ।1।
उस(देवी) ने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप (सुन्दर) और असद्रूप जगत उत्पन्न हुआ है।२।

मैं आनंद और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और पंचीकृत जगत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य जगत मैं ही हूँ ।3।
वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा (प्रकृति और उससे भिन्न) भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ।4।

मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ, मैं आदित्यों और विश्वेदेवों के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इंद्र, अग्नि एवं दोनों अश्विनीकुमारों का भरण पोषण करती हूँ।5।
मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिए विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ।6।

देवों को उत्तम हवि (हवन) पहुंचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिए मैं हविर्द्रव्यों से युक्त धन को धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाश आदि का निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धिवृत्ति में है।  जो इस प्रकार जानता है, दैवी संपत्ति लाभ करता है।7।

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है। बड़े बड़ों को अपने-अपने कर्तव्य में प्रवृत्त करने वाली कल्याणकत्री को सदा नमस्कार है। गुण साम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी देवी को नमस्कार है। नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं।8।

उन अग्नि के जैसी वर्ण (रंग) वाली, ज्ञान से जगमगाने वाली, दीप्तिमति, कर्मफल प्राप्ति के हेतु सेवन की जाने वाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करने वाली देवि ! तुम्हे नमस्कार है।9।

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशवान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनु तुली आनंद दायक और अन्न तथा बल देने वाली वागरूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये।10।

काल का भी नाश करने वाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कंदमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं।11।

हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते हैं। वह देवी हमें उस विषय (ज्ञान-ध्यान) में प्रवृत्त करें।12।

हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनसे मृत्युरहित देव उत्पन्न हुए।13।

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि- इंद्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स- वर्ण, मातरिश्वा- वायु (क), अभ्र (ह), इंद्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल- वर्ण और माया (ह्रीं)- या सर्वात्मिका जगन्माता की मूलविद्या है और वह ब्रह्मस्वरूपिणी है।14।

ये परमात्मा की शक्ति हैं। ये विश्वमोहिनी हैं। पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करने वाली हैं। ये श्री महाविद्या हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार आकर जाता है।15।

भगवती! तुम्हे नमस्कार है। माता! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो।16।

(मन्त्रदृष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वासु हैं, वही ये एकादश रूद्र हैं, वही ये द्वादश आदित्य हैं, वही ये सोमपान करने वाले और सोमपान न करने वाले विश्वेदेव हैं, वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं, वही ये सत्त्व-रज और ताम हैं, वही ये ब्रह्म, विष्णु, रुद्ररूपिणी हैं, वही ये प्रजापति-इंद्र-मनु हैं, वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं, उन पाप नाश करने वाली, भोग-मोक्ष देने वाली , अंतरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मंगल रूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं।17।

वियत- आकाश (ह) तथा 'ई' कार से युक्त, वीतिहोत्र- अग्नि (र)- सहित, अर्धचंद्र से अलंकृत जो देवी का बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करने वाला है। इस प्रकार एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं)- का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त का शुद्ध है, जो निरातिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान के सागर हैं। (यह मन्त्र देवी का प्रणव माना जाता है। ॐकार के सामान यह मन्त्र भी व्यापक अर्थ से भरा हुआ है) ।18-19।

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू- काम (क्लीं), इसके आगे छठा भोजन अर्थात च, वही वक्त्र अर्थात आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र'- दक्षिण कर्ण (उ) और बिंदु अर्थात अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात 'ऐ' से युक्त (यै)और 'विच्चे' यह नवार्ण मन्त्र उपासकों को आनंद और ब्रह्म सायुज्य देने वाला है।
भावार्थ -[हे चित्स्वरुपिणी महासरस्वती! हे सद रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनंद रूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती-स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्या रूप रज्जू की दृढ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो] ।20।

हृतकमल के मध्य में रहने वाली, प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, पाश और अंकुश धारण करने वाली, मनोहर रूपवाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हाथों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तवस्त्र परिधान करने वाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाली देवी को मैं भजता हूँ।21।

महाभय का नाश करने वाली, महासंकट को शांत करने वाली और महान करुना की साक्षात मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ।22।

जिसका स्वरुप ब्रह्मादिक नहीं जानते- इसलिए जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अंत नहीं मिलता- इसीलिए जिसे अनंता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दिखाई नहीं पड़ता- इसीलिए जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिनका जन्म समझ में नहीं आता- इसीलिए जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है- इसीलिए जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई है- इसीलिए जैसे नैका कहते हैं, वह इसीलिए अज्ञेया, अनंता, अलक्ष्या, अजा, एका, नैका कहाती हैं।23।

सब मन्त्रों में 'मातृका'- मूलाक्षर रूप से रहने वाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ)- रूप से रहने वाली, ज्ञानों में 'चिन्मयातीता', शून्यों में 'शून्यसाक्षिणी' तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं।24।

उन दुर्विज्ञेय, दुराचार नाशक और संसार सागर से तारने वाली दुर्गा देवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।२५।

इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है, उसे पाँचों अथर्शीर्षों के जप का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष को न जानकार जो प्रतिमा स्थापन करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता। अष्टोत्तर जप (108 बार) इसकी पुरश्चरण विधि है। जो इसका दस बार पाठ करता है वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महादेवी के पसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है।२६।

फलश्रुति- इसका सायंकाल में अध्ययन करने वाला दिन मेंकिये हुए पापों का नाश करता है, प्रातः काल में अध्ययन करने वाला रात्री में किये हुए पापों का नाश करता है। दोनों समय अध्ययन करने वाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में तुरीय संध्या के समय जप करने से वाकसिद्धि प्राप्त होती है। नयी प्रतिमा पर जप करने से देवता सान्निध्य प्राप्त होता है। प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी (अमृतसिद्धि) योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है।  जो इस प्रकार जानता है, वह महामृत्यु से तर जाता है। इस प्रकार यह अविद्यानाशिनी ब्रह्मविद्या है।।
इस प्रकार देव्यथर्वशीर्ष स्तोत्र का अर्थ पूरा हुआ।

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Monday, April 29, 2019

Tantroktam Devi Suktam Lyrics in Sanskrit / Hindi

Tantroktam devi suktam in Hindi- तन्त्रोक्तं देवी सूक्तम्, अर्थ सहित-

यह स्तोत्र देवताओं द्वारा देवी भगवती को प्रसन्न करने के लिये गाया गया था. यह सूक्त देवी माहात्म्य के अन्तर्गत दुर्गा सप्तशती के पांचवे अध्याय के 9वे श्लोक से 82वे श्लोक तक दिया गया है. तन्त्रोक्त देवी सूक्त इस प्रकार है-

अथ तन्त्रोक्तं देवी सूक्तम्

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।।1।।

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः ।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरुपिन्यै सुखायै सततं नमः ।।2।।

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः ।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ।।3।।

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै ।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ।।4।।

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः ।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ।।5।।

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।6।।

या देवी सर्वभूतेषु चेतन्यभिधीयते ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।7।।

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।8।।

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।9।।

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।10।।

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।11।।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।12।।

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।13।।

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।14।।

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।15।।

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।16।।

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।17।।

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।18।।

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमो नमः ।।19।।

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।20।।

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।21।।

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।22।।

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।23।।

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।24।।

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।25।।

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।26।।

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः।।27।।

चितिरुपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत् ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।28।।

स्तुता सुरैः पुर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रण दिनेषु सेविता ।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।।29।।

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते ।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः ।।30।।

इति तन्त्रोक्तं देवी सूक्तं संपूर्णम्। 

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Meaning of Devi Suktam- ( हिंदी अर्थ )

तंत्रोक्त देवी सूक्त का हिंदी अर्थ इस प्रकार है, यह अर्थ गीताप्रेस गोरखपुर के द्वारा प्रकाशित दुर्गा सप्तशती से लिया गया है:-

देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। जगदम्बा को नियमपूर्वक नमस्कार है। १।
 रौद्रा को नमस्कार है, नित्या, गौरी एवं धात्री को बारम्बार नमस्कार है। ज्योत्स्नामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है।२।
शरणागतों का कल्याण करने वाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को बारम्बार नमस्कार है। नैऋती (राक्षसों की लक्ष्मी) राजाओं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी) -स्वरूपा आप जगदम्बा को बारम्बार नमस्कार है।३।
दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट से बाहर निकलने वाली), सारा (सबकी आधारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रादेवी को सर्वदा नमस्कार है।४।
अत्यंत सौम्य तथा अत्यंत रौद्र रूपा देवी को [मैं] नमस्कार करता हूँ, उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है, जगत की आधारभूता कृति देवी को बारम्बार नमस्कार है ।५।
जो देवी सभी प्राणियों में विष्णुमाया के रूप में कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।६।
जो देवी सभी प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।७।
जो देवी सभी प्राणियों में बुद्धि रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।८।
जो देवी सभी प्राणियों में निद्रा रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।९।
जो देवी सभी प्राणियों में क्षुधा (भूख ) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१०।
जो देवी सभी प्राणियों में छाया रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।११।
जो देवी सभी प्राणियों में शक्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१२।
जो देवी सभी प्राणियों में तृष्णा (प्यास) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१३।
जो देवी सभी प्राणियों में क्षान्ति (क्षमा) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१४।
जो देवी सभी प्राणियों में जाति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१५।
जो देवी सभी प्राणियों में लज्जा रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१६।
जो देवी सभी प्राणियों में शान्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१७।
जो देवी सभी प्राणियों में श्रद्धा रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१८।
जो देवी सभी प्राणियों में कान्ति (प्रकाश) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१९।
जो देवी सभी प्राणियों में लक्ष्मी रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२०।
जो देवी सभी प्राणियों में वृत्ति (स्वभाव) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२१।
जो देवी सभी प्राणियों में स्मृति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२२।
जो देवी सभी प्राणियों में दया रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२३।
जो देवी सभी प्राणियों में तुष्टि रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२४।
जो देवी सभी प्राणियों में माता रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२५।
जो देवी सभी प्राणियों में भ्रान्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२६।
जो जीवों के इन्द्रिय वर्ग की अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियों में सदा व्याप्त रहने वाली हैं, उन व्याप्ति देवी को बारम्बार नमस्कार है।२७।
जो देवी चैतन्य रूप से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२८।
पूर्वकाल में अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इंद्र ने बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मंगल करे तथा सभी आपत्तियों का सर्वनाश करें।२९।
उद्दंड दैत्यों से सताये हुए हम सभी जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैंतथा जो भक्ति से विनम्र पुरुषों द्वारा स्मरण की जाने पर तत्काल ही सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें।३०।

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Saturday, April 27, 2019

Vedoktam Devi Suktam (Durga Saptashati) lyrics in Hindi

devi bhagwati gurga
यह सूक्त ऋग्वेद के मंडल १० के सूक्त १२५ में लिखा गया है, इसे कहीं-कहीं वाकम्भरणी सूक्त भी कहा गया है,

 ऋग्वेदोक्तं देवी सूक्तम् ( हिन्दी अर्थ सहित ) -

 विनियोगः -
ॐ अहमित्यष्टर्चस्य सूक्तस्य वागाम्भृणी ऋषिः, सच्चित्सुखात्मकः सर्वगतः परमात्मा देवता, द्वितीयाया ऋचो जगती, शिष्टानां त्रिष्टुप् छन्दः, देविमाहात्म्यपाठे विनियोगः 

ध्यानम्  -
ॐ सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः
शङ्खं चक्रधनुःशराम्श्च् दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता,
आमुक्ताङ्ग्दहारकङ्क्णरणत्कान्चीरणन्नूपूरा
दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला.

देवीसूक्तम् -

ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा विभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ।।1।।

अहं  सोममाहनसं विभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ।।2।।

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्य्यावेशयन्तीम् ।।3।।

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ।।4।।

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।।5।।

अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं क्रिणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ।।6।।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ।।7।।

अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना संबभूव ।।8।।

।। इति श्री ऋग्वेदोक्तं देवी सूक्तं संपूर्णम् ।। 

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 Hindi Meaning of Devi Suktam-

ध्यान- 
जो सिंह की पीठ पर विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है, जो मरकतमणि के समान कान्तिवाली अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, तीन नेत्रों से सुशोभित होती हैं, जिनके भिन्न भिन्न अंग बांधे हुए बाजूबंद, हार, कंकण, खनखनाती हुई करधनी और रुनझुन करते हुए नूपुरों से विभूषित हैं तथा जिनके कानों में रत्नजड़ित कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं, वे भगवती दुर्गा हमारी दुर्गति दूरकरने वाली हों।

मन्त्र ( अर्थ )-

[ महर्षि अम्भृण की कन्या का नाम वाक् था, वह ब्रह्म ज्ञानिनी थी, उसने देवी के साथ अभिन्नता धारण कर ली थी, ये उसी के उद्गार ( वचन ) हैं- ] मैं सच्चिदानंदमयी सर्वात्मा देवी रूद्र, वसु, आदित्य, तथा विश्वेदेव गणों के रूप में विचरती हूँ। मैं ही मित्र और वरुण दोनों को, इंद्र और अग्नि तथा दोनों अश्विनीकुमारों को धारण करती हूँ।।१।।

मैं ही शत्रुओं के नाशक आकाशचारी देवता सोम को, त्वष्टा प्रजापति को तथा पूषा और भाग को भी धारण करती हूँ। जो हविष्य से संपन्न हो देवताओं को हविष्य की प्राप्ति कराता है, उस यजमान के लिए मैं ही उत्तम यज्ञ का फल और धन प्रदान करती हूँ।।२।।

मैं सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी अपने उपासकों को धन की प्राप्ति कराने वाली, साक्षात्कार करने योग्य परब्रह्म को अपने से अभिन्न रूप में जानने वाली तथा पूजनीय देवताओं में प्रधान हूँ। मैं प्रपंच रूप से अनेक भावों में स्थित हूँ। सम्पूर्ण भूतों में मेरा प्रवेश है। अनेक स्थानों में रहने वाले देवता जहां कहीं जो कुछ भी करते हैं, वह सब मेरे लिए करते हैं।।३।।

जो अन्न खाता है, वह मेरी शक्ति से ही खाता है, इसी प्रकार जो देखता है, जो सांस लेता है और जो कही हुई बात सुनता है वह मेरी ही सहायता से उन सब कर्मों को करने में समर्थ होता है। जो मुझे इस रूप में नहीं जानते, वे न जानने के कारण ही दीन दशा को प्राप्त होते जाते हैं। हे बहुश्रुत, मैं तुम्हे श्रद्धा से प्राप्त होने वाले ब्रह्मतत्व का उपदेश करती हूँ, सुनो- ।।४।।

मैं स्वयं ही देवताओं और मनुष्यों द्वारा सेवित इस दुर्लभ तत्व का वर्णन करती हूँ, मैं जिस जिस पुरुष की रक्षा करना चाहती हूँ, उस-उस को सब की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ, उसी को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्षज्ञान संपन्न ऋषि तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त बनाती हूँ।।५।।

मैं ही ब्रह्मद्वेषी हिंसक असुरों का वध करने के लिए रूद्र के धनुष को चढाती हूँ। मैं ही शरणागत जनों की रक्षा के लिए शत्रुओं से युद्ध करती हूँ तथा अन्तर्यामी रूप से पृथ्वी और आकाश के भीतर व्याप्त रहती हूँ।।६।।

मैं ही इस जगत के पिता रूप आकाश को सर्वाधिष्ठान स्वरुप परमात्मा के रुप में उत्पन्न करती हूँ। समुद्र में तथा जल में मेरे कारण चैतन्य ब्रह्म की स्थिति है, अतएव ( इसी कारण से ) मैं समस्त भुवन में व्याप्त रहती हूँ तथा उस स्वर्गलोक का भी अपने शरीर से स्पर्श करती हूँ।।७।।

मैं कारण रूप से जब समस्त विश्व की रचना आरम्भ करती हूँ तब दूसरों की प्रेरणा के बिना स्वयं ही वायु के भाँति चलती हूँ, स्वेच्छा से ही कर्म में प्रवृत्त होती हूँ, मैं पृथ्वी और आकाश दोनों से परे हूँ, अपनी महिमा से ही मैं ऐसी हुई हूँ।।८।।

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Friday, April 5, 2019

Devyaparadha Kshamapana Stotram देव्यपराध क्षमापन स्तोत्र Lyrics

Devyaparadh Kshamapan Lyrics ( Sanskrit )- 

देव्यपराध क्षमापन स्तोत्र आद्य शंकराचार्य के द्वारा रचित स्तोत्र है जो देवी भगवती को समर्पित है, आदि शंकराचार्य देवी से अपने पापों के लिए क्षमा याचना करते हैं। यहाँ यह स्तोत्र हिंदी में अर्थ सहित दिया गया है।

। अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्।

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो,
न चावाह्नं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं,
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्।।1।।

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया,
विधेयाशक्यत्वात्त्व चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे,
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।2।।

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः,
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे,
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।3।।

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता,
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया,
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे,
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।4।।

परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया,
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि,
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता,
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ।।5।।

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा,
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः,
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं,
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौः ।।6।।

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो,
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः,
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं,
भवानि तवत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ।।7।।

न मोक्षस्याकाङक्षा भवविभववाञ्छापि च न मे,
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः,
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै,
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ।।8।।

 नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः,
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः,
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे,
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव।।9।।

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं,
करोमि दुर्गे करुनार्नवेशि,
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः,
क्षुधा तृषार्ता जननीं स्मरन्ति ।।10।।

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि,
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ।।11।।

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि,
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ।।12।।

।।इति श्री शङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं संपूर्णम् ।।

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 Meaning of Stotra in Hindi, हिंदी अर्थ-

माँ ! मैं न मन्त्र जानता हूँ, न यंत्र; अहो! मुझे स्तुति का भी ज्ञान नहीं है. न आवाहन का पता है, न ध्यान का. स्तोत्र और कथा की भी जानकारी नहीं है. न तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप करना हि आता है; परन्तु एक जानता हूँ, केवल तुम्हारा अनुसरण करना- तुम्हारे पीछे चलना, जो कि सब क्लेशों को समस्त दुःख विपत्तियों को हर लेने वाला है. 1

सब का उद्धार करने वाली कल्यान्मायी माता ! में पूजा की विधि नहीं जानता, मेरे ओआस धन का भी अभाव है, में स्वभा से भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक-ठीक पूजा का सम्पादन भी नहीं हो सकता; इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में जो त्रुटि हो गयी है, उसे क्षमा करना; क्योंकि कुपुत्र का होना संभव है, किन्तु कहीं भी कुमाता नहीं होती. 2

 माँ ! इस पृथ्वी पर तुम्हारे सीधे साधे पुत्र तो बहुत से हैं, किन्तु उन सब में मैं ही अत्यंत चपल तुम्हारा बालक हूँ मेरे जैसा चंचल कोई विरला हि होगा. शिवे मेरा जो यह त्याग हुआ है, यह तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है; क्योकि संसार में कुपुत्र का होना संभव है, किन्तु कहीं भी कुमाता नहीं होती. ३

जगदम्ब ! माता, मैंने तुम्हारे चरणों की सेवा कभी नहीं की, देवि! तुम्हे अधिक धन भी समर्पित नहीं किया; तथापि मुझ जैसे अधम पर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो, इसका कारण यही है कि संसार में कुपुत्र पैदा हो सकता है परन्तु कहीं भी कुमाता नहीं होती. ४

 गणेश जी को जन्म देने वाली माता पार्वती! [ अन्य देवताओं की आराधना करते समय ] मुझे नाना प्रकार की सेवाओं में व्यग्र रहना पड़ता था, इसलिए पचासी वर्ष से अधिक अवस्था हो जाने पर आइने देवताओं को छोड़ दिया है, अब उनकी सेवा-पूजा मुझसे नहीं हो पाती; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलने की आशा नहीं है. इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्बरहित होकर किसकी शरण मैं जाउंगा. 5.

 माता अपर्णा ! तुम्हारे मन्त्र का एक अक्षर भी कान में पड़ जाय तो उसका फल यह होता है कि मुर्ख चांडाल भी मधुपाक के समान मधुर वाणी का उच्चारण करने वाला उत्तम वक्ता हो जाता है, दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्णमुद्राओं से संपन्न हो चिरकाल तक निर्भय विहार करता रहता है. जब मन्त्र के एक अक्षर श्रवण का ऐसा फल है तो जो लोग विधि पूर्वक जप में लगे रहते हैं, उनके जप से प्राप्त होने वाला उत्तम फल कैसा होगा ? इसको कौन मनुष्य जान सकता है. ६.

 भवानी ! जो अपने अंगों में चिता की राख-भभूत लपेटे रहते हैं, विष ही जिनका भोजन है, जो दिगंबरधारी ( नग्न रहने वाले ) हैं, मस्तक पर जटा और कंठ में नागराज वासुकि को हार के रूप में धारण करते हैं तथा जिनके हाथ में कपाल ( भिक्षापात्र ) शोभा पाता है, ऐसे भूतनाथ पशुपति भी जो एकमात्र 'जगदीश' की पदवी धारण करते हैं, इसका क्या कारण है? यह महत्त्व उन्हें कैसे मिला ; यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहण की परिपाटी का फल है; तुम्हारे साथ विवाह होने से हि उनका महत्त्व बाद गया. 7.

 मुख में चन्द्रमा की शोभा धारण करने वाली माँ ! मुहे मोक्ष की इच्छा नहीं है, संसार के वैभव की अभिलाषा नहीं हैं; न विज्ञान की अपेक्षा है; न सुख की आकांक्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म 'मृडाणी, रुद्राणी, शिव, शिव, भवानी' इन नामों का जप करते हुए बीते. 8

 माँ श्यामा ! नाना प्रकार की पूजन सामग्रियों से कभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी. सदा कठोर भाव का चिंतन करने वाली मेरी वाणी ने कौन सा अपराध नहीं किया है ! फिर भी तुम स्वयं ही प्रयत्न करके मुह अनाथ पर जो कुछ भी कृपा दृष्टि करती हो, माँ ! यह तुम्हारे हि योग्य है. तुम्हारे जैसी दयामयी माता ही मेरे जैसे कुपुत्र को भी आश्रय दे सकती है. 9

 माता दुर्गे ! करुनासिंधु महेश्वरी ! मैं विपत्तियों में फंसकर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ, इसे मेरी शठता न मान लेना; क्योंकि भूख प्यास से पीड़ित बालक माता का ही स्मरण करते हैं. 10

 जगदम्ब ! मुह पर जो तुम्हारी पूर्ण कृपा बनी हुई है, इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है, पुत्र अपराध पर अपराध क्यों न करता जा रहा हो, फिर भी माता उसकी उपेक्षा नहीं करती. 11

 महादेवि ! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है; ऐसा जानकार जो उचित जान पड़े, वह करो.12

Meaning of Stotra in Hindi-

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Tuesday, November 27, 2018

Siddha Kunjika Stotram lyrics in Hindi (अर्थ सहित)

chandika sidhha kunjika stotram
Maa durga
सिद्धकुंजिका स्तोत्र (siddh kunjika stora) देवी माहात्म्य के अंतर्गत परम कल्याणकारी स्तोत्र है। यह स्तोत्र रुद्रयामल तंत्र के गौरी तंत्र भाग से लिया गया है। सिद्धकुंजिका स्तोत्र का पाठ पूरी दुर्गा सप्तशती के पाठ के बराबर है। इस स्तोत्र के मूल मन्त्र नवाक्षरी मंत्र ( ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ) के साथ प्रारम्भ होते है। कुंजिका का अर्थ है चाबी (key) अर्थात कुंजिका स्तोत्र दुर्गा सप्तशती की शक्ति को जागृत करता है जो महेश्वर शिव के द्वारा गुप्त (lock) कर दी गयी है। इस स्तोत्र के पाठ के उपरान्त किसी और जप या पूजा की आवश्यकता नहीं होती, कुंजिका स्तोत्र के पाठ मात्र से सभी जाप सिद्ध हो जाते है। कुंजिका स्तोत्र में आए बीजों (बीज मन्त्रो) का अर्थ जानना न संभव है और न ही अतिआवश्यक अर्थात केवल जप पर्याप्त है। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र इस प्रकार है:-

शिव उवाच

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत् ।।१।।

न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ।।२।।

कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ।।३।।

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तंभोच्चाटनादिकम।
पाठमात्रेण संसिध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ।।४।।

अथ मंत्रः

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।।

। इति मंत्रः ।

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ।।१।।

नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ।
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।।२।।

ऐंकारी सृष्टिरुपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोस्तु ते।।३।।

चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ।।४।।

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ।।५।।

हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ।।६।।

अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा।।७।।

पां  पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरुष्व मे।।८।।

इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ।।

यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ।।

इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।
।। ॐ तत्सत्।।

अर्थ ( Meaning ) -

शिव जी बोले-
  देवी !सुनो। मैं उत्तम कुंजिका स्तोत्र का  उपदेश करूँगा, जिस मन्त्र के प्रभाव से देवी का जप ( पाठ ) सफल होता है ।।१।।

कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी आवश्यक नहीं है ।।२।।
  केवल कुंजिका के पाठ से दुर्गापाठ का फल प्राप्त हो जाता है। ( यह कुंजिका ) अत्यंत गुप्त और देवों के लिए भी दुर्लभ है ।।३।।
  हे पार्वती !  स्वयोनि की भांति प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिए। यह उत्तम कुंजिकास्तोत्र केवल पाठ के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि ( अभिचारिक ) उद्देश्यों को सिद्ध करता है ।।४।।
   मन्त्र -ॐ  ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।।

( मंत्र में आये बीजों का अर्थ जानना न संभव है, न आवश्यक और न ही वांछनीय (Desirable)। केवल जप पर्याप्त है। )
  हे रुद्ररूपिणी ! तुम्हे नमस्कार। हे मधु दैत्य को मारने वाली ! तुम्हे नमस्कार है। कैटभविनाशिनी को नमस्कार। महिषासुर को मारने वाली देवी ! तुम्हे नमस्कार है ।।१।।
  शुम्भ का हनन करने वाली और निशुम्भ को मारने वाली ! तुम्हे नमस्कार है ।।२।।
  हे महादेवी ! मेरे जप को जाग्रत और सिद्ध करो। 'ऐंकार' के रूप में सृष्टिरूपिणी, 'ह्रीं' के रूप में सृष्टि का पालन करने वाली ।।३।।
  क्लीं के रूप में कामरूपिणी ( तथा अखिल ब्रह्माण्ड ) की बीजरूपिणी देवी ! तुम्हे नमस्कार है। चामुंडा के रूप में तुम चण्डविनाशिनी और 'यैकार' के रूप में वर देने वाली हो ।।४।।
  'विच्चे' रूप में तुम नित्य ही अभय देती हो। ( इस प्रकार ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ) तुम इस मन्त्र का स्वरुप हो ।।५।।
  'धां धीं धूं' के रूप में धूर्जटी ( शिव ) की तुम पत्नी हो। 'वां वीं वूं' के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। 'क्रां क्रीं क्रूं' के रूप में कालिकादेवी, 'शां शीं शूं' के रूप में मेरा कल्याण करो ।।६।।
  'हुं हुं हुंकार' स्वरूपिणी, 'जं जं जं' जम्भनादिनी, 'भ्रां भ्रीं भ्रूं' के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी ! तुम्हे बार बार प्रणाम ।।७।।
  'अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं' इन सबको तोड़ो और दीप्त करो, करो स्वाहा। 'पां पीं पूं' के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो। 'खां खीं खूं' के रूप में तुम खेचरी ( आकाशचारिणी ) अथवा खेचरी मुद्रा हो।।८।।
  'सां सीं सूं' स्वरूपिणी सप्तशती देवी के मन्त्र को मेरे लिए सिद्ध करो। यह सिद्धकुंजिका स्तोत्र मन्त्र को जगाने के लिए है। इसे भक्तिहीन पुरुष को नहीं देना चाहिए। हे पार्वती ! इस मन्त्र को गुप्त रखो। हे देवी ! जो बिना कुंजिका के सप्तशती का पाठ करता है उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं मिलती जिस प्रकार वन में रोना निरर्थक होता है।
( इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के गौरीतंत्र में शिव पार्वती संवाद में सिद्ध कुंजिका स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ )

Benefits of Siddha Kunjika Stotram
-
By reciting this Stotra on can easily achieve to overcome murder, enchants, slavery, paralysing (stambham).
One's all enemies are destroyed and problems are solved by this Mantra.

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Wednesday, May 30, 2018

Keelak Stotram | कीलक स्तोत्र अर्थ सहित Lyrics

Chandi Keelak Stotram


कीलक स्तोत्र का पाठ दुर्गा सप्तशती (देवी माहात्म्य) के अंतर्गत किया जाता है। इस स्तोत्र का पाठ अनिवार्य रूप से दुर्गा कवच और अर्गला स्तोत्र के बाद किया जाता है।

इस स्तोत्र के पहले मंत्र का ३१ बार प्रतिदिन जप करने से मन में शान्ति प्राप्त होती है। यहाँ कीलक स्तोत्र का पूरा विवरण अर्थ सहित दिया गया है। 
~~अथ कीलक स्तोत्रम्~~
विनियोगः- ॐ अस्य कीलकमंत्रस्य शिव ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्रीमहासरस्वती देवता श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।।
ॐ नमश्चण्डिकायै
मार्कण्डेय उवाच
ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे ।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ।।१।।
सर्वमेतद्विजानियान्मंत्राणामभिकीलकम् ।
सो-अपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः ।।२।।

मार्कण्डेय जी कहते हैं- विशुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है, तीनों वेद ही जिनके तीन नेत्र हैं, जो कल्याण प्राप्ति के हेतु हैं तथा अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करते हैं, उन भगवान् शिव को नमस्कार है। मन्त्रों का जो अभिकीलक है अर्थात मन्त्रों की सिद्धि में विघ्न उपस्थित करने वाले शापरूपी कीलक का निवारण करने वाला है, उस सप्तशती स्तोत्र को सम्पूर्ण रूप से जानना चाहिए (और जानकर उसकी उपासना करनी चाहिए)।।१-२।।

सिध्यन्त्युच्याटनादीनि वस्तुनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति ।। ३।।
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जाप्येन सिद्ध्यते सर्वमुच्चाटनादिकम् ।।४।।

उसके भी उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध होते हैं उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है; तथापि जो अन्य मन्त्रों का जप न करके केवल इस सप्तशती नामक स्तोत्र से ही देवी की स्तुति करते हैं, उन्हें स्तुति मात्र से ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी देवी सिद्ध हो जाती हैं। उन्हें अपने कार्य की सिद्धि के लिये मंत्र, औषधि तथा अन्य किसी साधन के उपयोग की आवश्यकता नहीं रहती | बिना जप के उनके उच्चाटन आदि समस्त अभिचारिक कर्म सिद्ध हो जाते हैं ।।३-४।।

समग्राण्यपि सिद्धयन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास  सर्वमेवमिदं शुभम् ।।५।।
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।

समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावान्नियन्त्रणाम् ।।६।।

इतना ही नहीं ,उनकी संपूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ भी सिद्ध होती है | लोगों के मन में यह शंका थी कि 'जब केवल सप्तशती की उपासना से भी सामान रूप से अथवा सप्तशती को छोड़कर अन्य मंत्रो की उपासना से भी सामान रूप से सब कार्य सिद्ध होते है, अब इनमे श्रेष्ठ कौन सा साधन है?' लोगों की इस शंका को सामने रखकर भगवान् शंकर ने अपने पास आए हुए जिज्ञासुओं को समझाया की यह सप्तशती नामक संपूर्ण स्रोत ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है तदनन्तर भगवती चण्डिकाके सप्तशती नामक स्त्रोत को महादेव जी ने गुप्त कर दिया; सप्तशती के पाठसे जो पुण्य प्राप्त होता है, उसकी कभी समाप्ति नहीं होती; किंतु अन्य मंत्रो के जपजन्य पुण्य की समाप्ति हो जाती है, अतः भगवान् शिव ने अन्य मंत्रो की अपेक्षा जो सप्तशती की ही श्रेष्ठता का निर्णय किया उसे जानना चाहिए ।।५-६।।

सोअपि  क्षेममवाप्नोति  सर्वमेवं न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ।।७।।
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम ।।८।।

अन्य मंत्रो का जप करनेवाला पुरुष भी यदि सप्तशती के स्त्रोत और जप का अनुष्ठान कर ले तो वह भी पूर्ण रूप से ही कल्याण का भागी होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है, जो साधक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी को एकाग्रचित होकर भगवती कीसेवा में अपना सर्वस्वा समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसाद रूप से ग्रहण करता है, उसी पर भगावती प्रसन्न होती है; अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती; इस प्रकार सिद्धि के प्रतिबंधक रूप कीलके द्वारा महादेव जी ने इस स्त्रोत को कीलित कर रखा है ।।७-८।।

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोअपि गन्धर्वो जायते नरः।।9।।
न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।।१०।।

जो पूर्वोक्त रीति से निष्कीलन करके इस सप्तसती स्त्रोत का प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारणपूर्वक पाठ करता है, वह मनुस्य सिद्ध हो जाता है, वही देवी का पार्षद होता है और वही गांधर्व भी होता है । सर्वत्र विचरते रहने पर भी इस संसार में उसे कहीं भी भय नहीं होता | वह अपमृत्यु के वश में नहीं पड़ता तथा देह त्यागने के अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।।9-10।।

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः ।।११।।
सौभाग्यादि च यत्किञ्चित्त दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं  तत्प्रसादेन तेन  जाप्यमिदं शुभम् ।।१२।।

अतः कीलन को जानकार उसका परिहार करके ही सप्तसती का पाठ आरंभ करे, जो ऐसा ही करता उसका नाश हो जाता है, इसलिए कीलकऔर निष्कीलन का ज्ञान प्राप्त करने पर ही यह स्त्रोत निर्दोष होता है और विद्वान् पुरुष इस निर्दोष स्तोत्र का ही पाठ आरंभ करते है। स्त्रियों में जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृश्टिगोचर होता है, वह सब देवी के प्रसाद का ही फल है | अतः इस कल्याणमय स्त्रोत का सदा जप करना चाहिए ।।११-१२।।

शनैस्तु जप्यमाने-अस्मिन स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव  समग्रापि  ततः  प्रारभ्यमेव  तत् ।।१३।।
ऐश्वर्यं    यत्प्रसादेन   सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः।।ॐ।।१४।।

इस स्त्रोत का मंद स्वर से पाठ करने पर स्वल्प फल की सिद्धि है, अतः उच्च स्वर से ही इसका पाठ आरंभ करना चाहिए जिनके प्रसाद से ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश तथा परम मोक्ष की भी सिद्धि होती है, उन कल्याणमयी जगदम्बा की स्तुति मनसा क्यों नहीं करते ?
इति श्री देव्याः कीलकस्तोत्रम सम्पूर्णम् ।

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Thursday, May 24, 2018

अर्गला स्तोत्रम् | Argala Stotram lyrics in Hindi

argala stotram prayer hindi sanskrit
jayanti mangla

अर्गला स्तोत्र का पाठ दुर्गा कवच के बाद और कीलक स्तोत्र के पहले किया जाता है। यह देवी माहात्म्य के अंतर्गत किया जाने वाला स्तोत्र अत्यंत शुभकारक और लाभप्रद है।

इस स्तोत्र का पाठ नवरातत्रि के अलावा देवी पूजन में भी किया जाता है।

।। अथार्गलास्तोत्रम् ।।

विनियोग- ॐ अस्य श्री अर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः अनुष्टुप छन्दः श्रीमहालक्ष्मीर्देवता श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।

ॐ नमश्चण्डिकायै
[ मार्कण्डेय उवाच ]
ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते ।। १।।
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तुते ।।२।।

ॐ चंडिका देवी को नमस्कार है। 
मार्कण्डेय जी कहते हैं - जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा - इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो। देवि चामुण्डे! तुम्हारी जय हो। सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। सब में व्याप्त रहने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। कालरात्रि! तुम्हें नमस्कार हो।।

मधुकैटभविद्राविविधातृ वरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।३।।
महिषासुरनिर्णाशि भक्तनाम सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ४।।

मधु और कैटभ को मारने वाली तथा ब्रह्माजी को वरदान देने वाली देवि! तुम्हे नमस्कार है। तुम मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान) दो, जय (मोह पर विजय) दो, यश (मोह-विजय और ज्ञान-प्राप्तिरूप यश) दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।। महिषासुर का नाश करने वाली तथा भक्तों को सुख देने वाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।३-४।।

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ५ ।।
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ६।।

रक्तबीज का वध और चण्ड-मुण्ड का विनाश करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। शुम्भ और निशुम्भ तथा धूम्रलोचन का मर्दन करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।५-६।।

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ७।।
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ८।।

सबके द्वारा वन्दित युगल चरणों वाली तथा सम्पूर्ण सौभग्य प्रदान करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। देवि! तुम्हारे रूप और चरित्र अचिन्त्य हैं। तुम समस्त शत्रुओं का नाश करने वाली हो। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।७-८।।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ९।।
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वाम चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १०।।

पापों को दूर करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारे चरणों में सर्वदा (हमेशा) मस्तक झुकाते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। रोगों का नाश करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।९-१०।।

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ११।।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १२।।

चण्डिके! इस संसार में जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। मुझे सौभाग्य और आरोग्य (स्वास्थ्य) दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।११-१२।।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १३।।
विधेहि देवि कल्याणम् विधेहि परमां श्रियम।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १४।।

जो मुहसे द्वेष करते हों, उनका नाश और मेरे बल की वृद्धि करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। देवि! मेरा कल्याण करो। मुझे उत्तम संपत्ति प्रदान करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। १३-१४।।

सुरसुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १५।।
विद्यावन्तं यशवंतं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १६।।

अम्बिके! देवता और असुर दोनों ही अपने माथे के मुकुट की मणियों को तुम्हारे चरणों पर घिसते हैं तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। तुम अपने भक्तजन को विद्वान, यशस्वी, और लक्ष्मीवान बनाओ तथा रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१५-१६।।

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १७।।
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १८।।

प्रचंड दैत्यों के दर्प का दलन करने वाली चण्डिके! मुझ शरणागत को रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। चतुर्भुज ब्रह्मा जी के द्वारा प्रशंसित चार भुजाधारिणी परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१७-१८।।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वत भक्त्या सदाम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १९।।
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २०।।

देवि अम्बिके! भगवान् विष्णु नित्य-निरंतर भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। हिमालय-कन्या पार्वती के पति महादेवजी के द्वारा होने वाली परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१९-२०।।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २१।।
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २२।।

शचीपति इंद्र के द्वारा सद्भाव से पूजित होने वाल परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। प्रचंड भुजदण्डों वाले दैत्यों का घमंड चूर करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।२१-२२।।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदये अम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २३।।
पत्नीं मनोरमां देहिमनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ।। २४।।

देवि! अम्बिके तुम अपने भक्तजनों को सदा असीम आनंद प्रदान करती हो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसार से तारने वाली तथा उत्तम कुल में जन्मी हो।।२३-२४।।

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशती संख्या वरमाप्नोति सम्पदाम्। ॐ ।। २५।।

जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करके सप्तशती रूपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जप-संख्या से मिलने वाले श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है। साथ ही वह प्रचुर संपत्ति भी प्राप्त कर लेता है।।२६।।

।। इति देव्या अर्गला स्तोत्रं सम्पर्णम ।।
 
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