Thursday, June 13, 2019

Devi Atharvashirsha Stotram in Sanskrit,

maa durga devi atharvashirsham

Devi Atharvashirsha Stotra ( देवी अथर्वशीर्षम ) अथर्ववेद से लिया गया है, लेकिन मूल रूप से यह ऋग्वेद से जुड़ा है। इस स्तोत्र का पाठ दुर्गा सप्तशती पाठ के पहले किया जाता है, यहाँ देवी अथर्वशीर्षम हिंदी अर्थ सहित दिया गया है।

देवी अथर्वशीर्ष स्तोत्रम-

।अथ श्री देव्यथर्वशीर्षम।
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ।।1।।
साब्रवीत्- अहं ब्रह्म्स्वरुपिणी । मत्तः प्रकृति पुरुशात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ।।2।।
अहमानन्दानानन्दौ । अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये । अहं पञ्च्भूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ।।3।।

वेदोऽहमवेदोऽहम् । विद्याहमविद्याहम् । अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ।।4।।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ।। 5।।
अहं सोमं तवष्टारं पूषणं भगं दधामि । अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ।।6।।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते । अहं राष्ट्री सङ्ग्मनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् । अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । य एवं वेद । स दैवीं संपदमाप्नोति (sampadmaapnoti ) ।।7।।

ते देवा अब्रुवन्- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।।8।।
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफ़लेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः ।।9।।

देवीं वाचमजनयन्त  देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ।।10।।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्  ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ।।11।।

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो       देवी         प्रचोदयात् ।।12।।
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वाजयन्त भद्रा अमृतबन्धवः ।।13।।

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम्  ।।14।।
एषाऽऽत्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा ।
एषा श्रीमहाविद्या । य एवं वेद स शोकं तरति ।।15।।

नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ।।16।।

सैपाष्टाै वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः ।
सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च ।
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः ।
सैषा सत्त्रजस्तमान्सि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररुपिणी ।
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः । सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि ।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी । तामहं प्रणौमि नित्यम् ।।
पपापहारिणीं देवीं भक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ।।17।।

वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ।।18।।
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः ।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ।।19।।

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसन्युक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः ।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ।।20।।

ह्रित्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् ।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ।।21।।
नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् ।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुन्यरूपिणीम् ।।22।।

यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता ।
यस्या लक्ष्यं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा ।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका ।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ।।23।।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ।।24।।

Also Read: दुर्गा सप्तशती (सभी स्तोत्र)

तां दुर्गा दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् ।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ।।25।।

 इदमर्थर्वशीर्षं योऽधीते स पन्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति-शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति।
शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः।
दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते ।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ।।26।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाश्यति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाश्यति ।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । निशीथे तुरीय संध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति ।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।
भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति ।
स महामृत्युं तरति य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।।

। इति श्री देव्यथर्वशीर्षम् संपूर्णम् ।

Devi Atharva Sheersham Meaning-

हिंदी अर्थ:
ॐ सभी देवता देवी के समीप गए और नम्रता से पूछने लगे- हे महादेवि! तुम कौन हो? ।1।
उस(देवी) ने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप (सुन्दर) और असद्रूप जगत उत्पन्न हुआ है।२।

मैं आनंद और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और पंचीकृत जगत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य जगत मैं ही हूँ ।3।
वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा (प्रकृति और उससे भिन्न) भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ।4।

मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ, मैं आदित्यों और विश्वेदेवों के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इंद्र, अग्नि एवं दोनों अश्विनीकुमारों का भरण पोषण करती हूँ।5।
मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिए विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ।6।

देवों को उत्तम हवि (हवन) पहुंचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिए मैं हविर्द्रव्यों से युक्त धन को धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाश आदि का निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धिवृत्ति में है।  जो इस प्रकार जानता है, दैवी संपत्ति लाभ करता है।7।

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है। बड़े बड़ों को अपने-अपने कर्तव्य में प्रवृत्त करने वाली कल्याणकत्री को सदा नमस्कार है। गुण साम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी देवी को नमस्कार है। नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं।8।

उन अग्नि के जैसी वर्ण (रंग) वाली, ज्ञान से जगमगाने वाली, दीप्तिमति, कर्मफल प्राप्ति के हेतु सेवन की जाने वाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करने वाली देवि ! तुम्हे नमस्कार है।9।

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशवान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनु तुली आनंद दायक और अन्न तथा बल देने वाली वागरूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये।10।

काल का भी नाश करने वाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कंदमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं।11।

हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते हैं। वह देवी हमें उस विषय (ज्ञान-ध्यान) में प्रवृत्त करें।12।

हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनसे मृत्युरहित देव उत्पन्न हुए।13।

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि- इंद्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स- वर्ण, मातरिश्वा- वायु (क), अभ्र (ह), इंद्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल- वर्ण और माया (ह्रीं)- या सर्वात्मिका जगन्माता की मूलविद्या है और वह ब्रह्मस्वरूपिणी है।14।

ये परमात्मा की शक्ति हैं। ये विश्वमोहिनी हैं। पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करने वाली हैं। ये श्री महाविद्या हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार आकर जाता है।15।

भगवती! तुम्हे नमस्कार है। माता! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो।16।

(मन्त्रदृष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वासु हैं, वही ये एकादश रूद्र हैं, वही ये द्वादश आदित्य हैं, वही ये सोमपान करने वाले और सोमपान न करने वाले विश्वेदेव हैं, वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं, वही ये सत्त्व-रज और ताम हैं, वही ये ब्रह्म, विष्णु, रुद्ररूपिणी हैं, वही ये प्रजापति-इंद्र-मनु हैं, वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं, उन पाप नाश करने वाली, भोग-मोक्ष देने वाली , अंतरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मंगल रूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं।17।

वियत- आकाश (ह) तथा 'ई' कार से युक्त, वीतिहोत्र- अग्नि (र)- सहित, अर्धचंद्र से अलंकृत जो देवी का बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करने वाला है। इस प्रकार एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं)- का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त का शुद्ध है, जो निरातिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान के सागर हैं। (यह मन्त्र देवी का प्रणव माना जाता है। ॐकार के सामान यह मन्त्र भी व्यापक अर्थ से भरा हुआ है) ।18-19।

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू- काम (क्लीं), इसके आगे छठा भोजन अर्थात च, वही वक्त्र अर्थात आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र'- दक्षिण कर्ण (उ) और बिंदु अर्थात अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात 'ऐ' से युक्त (यै)और 'विच्चे' यह नवार्ण मन्त्र उपासकों को आनंद और ब्रह्म सायुज्य देने वाला है।
भावार्थ -[हे चित्स्वरुपिणी महासरस्वती! हे सद रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनंद रूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती-स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्या रूप रज्जू की दृढ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो] ।20।

हृतकमल के मध्य में रहने वाली, प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, पाश और अंकुश धारण करने वाली, मनोहर रूपवाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हाथों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तवस्त्र परिधान करने वाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाली देवी को मैं भजता हूँ।21।

महाभय का नाश करने वाली, महासंकट को शांत करने वाली और महान करुना की साक्षात मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ।22।

जिसका स्वरुप ब्रह्मादिक नहीं जानते- इसलिए जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अंत नहीं मिलता- इसीलिए जिसे अनंता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दिखाई नहीं पड़ता- इसीलिए जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिनका जन्म समझ में नहीं आता- इसीलिए जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है- इसीलिए जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई है- इसीलिए जैसे नैका कहते हैं, वह इसीलिए अज्ञेया, अनंता, अलक्ष्या, अजा, एका, नैका कहाती हैं।23।

सब मन्त्रों में 'मातृका'- मूलाक्षर रूप से रहने वाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ)- रूप से रहने वाली, ज्ञानों में 'चिन्मयातीता', शून्यों में 'शून्यसाक्षिणी' तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं।24।

उन दुर्विज्ञेय, दुराचार नाशक और संसार सागर से तारने वाली दुर्गा देवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।२५।

इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है, उसे पाँचों अथर्शीर्षों के जप का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष को न जानकार जो प्रतिमा स्थापन करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता। अष्टोत्तर जप (108 बार) इसकी पुरश्चरण विधि है। जो इसका दस बार पाठ करता है वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महादेवी के पसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है।२६।

फलश्रुति- इसका सायंकाल में अध्ययन करने वाला दिन मेंकिये हुए पापों का नाश करता है, प्रातः काल में अध्ययन करने वाला रात्री में किये हुए पापों का नाश करता है। दोनों समय अध्ययन करने वाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में तुरीय संध्या के समय जप करने से वाकसिद्धि प्राप्त होती है। नयी प्रतिमा पर जप करने से देवता सान्निध्य प्राप्त होता है। प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी (अमृतसिद्धि) योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है।  जो इस प्रकार जानता है, वह महामृत्यु से तर जाता है। इस प्रकार यह अविद्यानाशिनी ब्रह्मविद्या है।।
इस प्रकार देव्यथर्वशीर्ष स्तोत्र का अर्थ पूरा हुआ।

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Monday, April 29, 2019

Tantroktam Devi Suktam Lyrics in Sanskrit / Hindi

Tantroktam devi suktam in Hindi- तन्त्रोक्तं देवी सूक्तम्, अर्थ सहित-

यह स्तोत्र देवताओं द्वारा देवी भगवती को प्रसन्न करने के लिये गाया गया था. यह सूक्त देवी माहात्म्य के अन्तर्गत दुर्गा सप्तशती के पांचवे अध्याय के 9वे श्लोक से 82वे श्लोक तक दिया गया है. तन्त्रोक्त देवी सूक्त इस प्रकार है-

अथ तन्त्रोक्तं देवी सूक्तम्

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।।1।।

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः ।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरुपिन्यै सुखायै सततं नमः ।।2।।

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः ।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ।।3।।

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै ।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ।।4।।

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः ।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ।।5।।

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।6।।

या देवी सर्वभूतेषु चेतन्यभिधीयते ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।7।।

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।8।।

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।9।।

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।10।।

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।11।।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।12।।

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।13।।

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।14।।

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।15।।

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।16।।

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।17।।

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।18।।

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमो नमः ।।19।।

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।20।।

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।21।।

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।22।।

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।23।।

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।24।।

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।25।।

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।26।।

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः।।27।।

चितिरुपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत् ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।28।।

स्तुता सुरैः पुर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रण दिनेषु सेविता ।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।।29।।

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते ।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः ।।30।।

इति तन्त्रोक्तं देवी सूक्तं संपूर्णम्। 

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Meaning of Devi Suktam- ( हिंदी अर्थ )

तंत्रोक्त देवी सूक्त का हिंदी अर्थ इस प्रकार है, यह अर्थ गीताप्रेस गोरखपुर के द्वारा प्रकाशित दुर्गा सप्तशती से लिया गया है:-

देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। जगदम्बा को नियमपूर्वक नमस्कार है। १।
 रौद्रा को नमस्कार है, नित्या, गौरी एवं धात्री को बारम्बार नमस्कार है। ज्योत्स्नामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है।२।
शरणागतों का कल्याण करने वाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को बारम्बार नमस्कार है। नैऋती (राक्षसों की लक्ष्मी) राजाओं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी) -स्वरूपा आप जगदम्बा को बारम्बार नमस्कार है।३।
दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट से बाहर निकलने वाली), सारा (सबकी आधारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रादेवी को सर्वदा नमस्कार है।४।
अत्यंत सौम्य तथा अत्यंत रौद्र रूपा देवी को [मैं] नमस्कार करता हूँ, उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है, जगत की आधारभूता कृति देवी को बारम्बार नमस्कार है ।५।
जो देवी सभी प्राणियों में विष्णुमाया के रूप में कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।६।
जो देवी सभी प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।७।
जो देवी सभी प्राणियों में बुद्धि रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।८।
जो देवी सभी प्राणियों में निद्रा रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।९।
जो देवी सभी प्राणियों में क्षुधा (भूख ) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१०।
जो देवी सभी प्राणियों में छाया रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।११।
जो देवी सभी प्राणियों में शक्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१२।
जो देवी सभी प्राणियों में तृष्णा (प्यास) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१३।
जो देवी सभी प्राणियों में क्षान्ति (क्षमा) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१४।
जो देवी सभी प्राणियों में जाति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१५।
जो देवी सभी प्राणियों में लज्जा रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१६।
जो देवी सभी प्राणियों में शान्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१७।
जो देवी सभी प्राणियों में श्रद्धा रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१८।
जो देवी सभी प्राणियों में कान्ति (प्रकाश) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।१९।
जो देवी सभी प्राणियों में लक्ष्मी रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२०।
जो देवी सभी प्राणियों में वृत्ति (स्वभाव) रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२१।
जो देवी सभी प्राणियों में स्मृति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२२।
जो देवी सभी प्राणियों में दया रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२३।
जो देवी सभी प्राणियों में तुष्टि रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२४।
जो देवी सभी प्राणियों में माता रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२५।
जो देवी सभी प्राणियों में भ्रान्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२६।
जो जीवों के इन्द्रिय वर्ग की अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियों में सदा व्याप्त रहने वाली हैं, उन व्याप्ति देवी को बारम्बार नमस्कार है।२७।
जो देवी चैतन्य रूप से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।२८।
पूर्वकाल में अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इंद्र ने बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मंगल करे तथा सभी आपत्तियों का सर्वनाश करें।२९।
उद्दंड दैत्यों से सताये हुए हम सभी जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैंतथा जो भक्ति से विनम्र पुरुषों द्वारा स्मरण की जाने पर तत्काल ही सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें।३०।

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Saturday, April 27, 2019

Vedoktam Devi Suktam (Durga Saptashati) lyrics in Hindi

devi bhagwati gurga
यह सूक्त ऋग्वेद के मंडल १० के सूक्त १२५ में लिखा गया है, इसे कहीं-कहीं वाकम्भरणी सूक्त भी कहा गया है,

 ऋग्वेदोक्तं देवी सूक्तम् ( हिन्दी अर्थ सहित ) -

 विनियोगः -
ॐ अहमित्यष्टर्चस्य सूक्तस्य वागाम्भृणी ऋषिः, सच्चित्सुखात्मकः सर्वगतः परमात्मा देवता, द्वितीयाया ऋचो जगती, शिष्टानां त्रिष्टुप् छन्दः, देविमाहात्म्यपाठे विनियोगः 

ध्यानम्  -
ॐ सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः
शङ्खं चक्रधनुःशराम्श्च् दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता,
आमुक्ताङ्ग्दहारकङ्क्णरणत्कान्चीरणन्नूपूरा
दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला.

देवीसूक्तम् -

ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा विभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ।।1।।

अहं  सोममाहनसं विभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ।।2।।

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्य्यावेशयन्तीम् ।।3।।

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ।।4।।

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।।5।।

अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं क्रिणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ।।6।।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ।।7।।

अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना संबभूव ।।8।।

।। इति श्री ऋग्वेदोक्तं देवी सूक्तं संपूर्णम् ।। 

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 Hindi Meaning of Devi Suktam-

ध्यान- 
जो सिंह की पीठ पर विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है, जो मरकतमणि के समान कान्तिवाली अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, तीन नेत्रों से सुशोभित होती हैं, जिनके भिन्न भिन्न अंग बांधे हुए बाजूबंद, हार, कंकण, खनखनाती हुई करधनी और रुनझुन करते हुए नूपुरों से विभूषित हैं तथा जिनके कानों में रत्नजड़ित कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं, वे भगवती दुर्गा हमारी दुर्गति दूरकरने वाली हों।

मन्त्र ( अर्थ )-

[ महर्षि अम्भृण की कन्या का नाम वाक् था, वह ब्रह्म ज्ञानिनी थी, उसने देवी के साथ अभिन्नता धारण कर ली थी, ये उसी के उद्गार ( वचन ) हैं- ] मैं सच्चिदानंदमयी सर्वात्मा देवी रूद्र, वसु, आदित्य, तथा विश्वेदेव गणों के रूप में विचरती हूँ। मैं ही मित्र और वरुण दोनों को, इंद्र और अग्नि तथा दोनों अश्विनीकुमारों को धारण करती हूँ।।१।।

मैं ही शत्रुओं के नाशक आकाशचारी देवता सोम को, त्वष्टा प्रजापति को तथा पूषा और भाग को भी धारण करती हूँ। जो हविष्य से संपन्न हो देवताओं को हविष्य की प्राप्ति कराता है, उस यजमान के लिए मैं ही उत्तम यज्ञ का फल और धन प्रदान करती हूँ।।२।।

मैं सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी अपने उपासकों को धन की प्राप्ति कराने वाली, साक्षात्कार करने योग्य परब्रह्म को अपने से अभिन्न रूप में जानने वाली तथा पूजनीय देवताओं में प्रधान हूँ। मैं प्रपंच रूप से अनेक भावों में स्थित हूँ। सम्पूर्ण भूतों में मेरा प्रवेश है। अनेक स्थानों में रहने वाले देवता जहां कहीं जो कुछ भी करते हैं, वह सब मेरे लिए करते हैं।।३।।

जो अन्न खाता है, वह मेरी शक्ति से ही खाता है, इसी प्रकार जो देखता है, जो सांस लेता है और जो कही हुई बात सुनता है वह मेरी ही सहायता से उन सब कर्मों को करने में समर्थ होता है। जो मुझे इस रूप में नहीं जानते, वे न जानने के कारण ही दीन दशा को प्राप्त होते जाते हैं। हे बहुश्रुत, मैं तुम्हे श्रद्धा से प्राप्त होने वाले ब्रह्मतत्व का उपदेश करती हूँ, सुनो- ।।४।।

मैं स्वयं ही देवताओं और मनुष्यों द्वारा सेवित इस दुर्लभ तत्व का वर्णन करती हूँ, मैं जिस जिस पुरुष की रक्षा करना चाहती हूँ, उस-उस को सब की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ, उसी को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्षज्ञान संपन्न ऋषि तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त बनाती हूँ।।५।।

मैं ही ब्रह्मद्वेषी हिंसक असुरों का वध करने के लिए रूद्र के धनुष को चढाती हूँ। मैं ही शरणागत जनों की रक्षा के लिए शत्रुओं से युद्ध करती हूँ तथा अन्तर्यामी रूप से पृथ्वी और आकाश के भीतर व्याप्त रहती हूँ।।६।।

मैं ही इस जगत के पिता रूप आकाश को सर्वाधिष्ठान स्वरुप परमात्मा के रुप में उत्पन्न करती हूँ। समुद्र में तथा जल में मेरे कारण चैतन्य ब्रह्म की स्थिति है, अतएव ( इसी कारण से ) मैं समस्त भुवन में व्याप्त रहती हूँ तथा उस स्वर्गलोक का भी अपने शरीर से स्पर्श करती हूँ।।७।।

मैं कारण रूप से जब समस्त विश्व की रचना आरम्भ करती हूँ तब दूसरों की प्रेरणा के बिना स्वयं ही वायु के भाँति चलती हूँ, स्वेच्छा से ही कर्म में प्रवृत्त होती हूँ, मैं पृथ्वी और आकाश दोनों से परे हूँ, अपनी महिमा से ही मैं ऐसी हुई हूँ।।८।।

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Friday, April 5, 2019

Devyaparadha Kshamapana Stotram देव्यपराध क्षमापन स्तोत्र Lyrics

Devyaparadh Kshamapan Lyrics ( Sanskrit )- 

देव्यपराध क्षमापन स्तोत्र आद्य शंकराचार्य के द्वारा रचित स्तोत्र है जो देवी भगवती को समर्पित है, आदि शंकराचार्य देवी से अपने पापों के लिए क्षमा याचना करते हैं। यहाँ यह स्तोत्र हिंदी में अर्थ सहित दिया गया है।

। अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्।

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो,
न चावाह्नं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं,
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्।।1।।

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया,
विधेयाशक्यत्वात्त्व चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे,
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।2।।

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः,
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे,
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।3।।

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता,
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया,
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे,
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।4।।

परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया,
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि,
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता,
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ।।5।।

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा,
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः,
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं,
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौः ।।6।।

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो,
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः,
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं,
भवानि तवत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ।।7।।

न मोक्षस्याकाङक्षा भवविभववाञ्छापि च न मे,
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः,
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै,
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ।।8।।

 नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः,
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः,
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे,
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव।।9।।

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं,
करोमि दुर्गे करुनार्नवेशि,
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः,
क्षुधा तृषार्ता जननीं स्मरन्ति ।।10।।

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि,
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ।।11।।

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि,
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ।।12।।

।।इति श्री शङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं संपूर्णम् ।।

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 Meaning of Stotra in Hindi, हिंदी अर्थ-

माँ ! मैं न मन्त्र जानता हूँ, न यंत्र; अहो! मुझे स्तुति का भी ज्ञान नहीं है. न आवाहन का पता है, न ध्यान का. स्तोत्र और कथा की भी जानकारी नहीं है. न तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप करना हि आता है; परन्तु एक जानता हूँ, केवल तुम्हारा अनुसरण करना- तुम्हारे पीछे चलना, जो कि सब क्लेशों को समस्त दुःख विपत्तियों को हर लेने वाला है. 1

सब का उद्धार करने वाली कल्यान्मायी माता ! में पूजा की विधि नहीं जानता, मेरे ओआस धन का भी अभाव है, में स्वभा से भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक-ठीक पूजा का सम्पादन भी नहीं हो सकता; इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में जो त्रुटि हो गयी है, उसे क्षमा करना; क्योंकि कुपुत्र का होना संभव है, किन्तु कहीं भी कुमाता नहीं होती. 2

 माँ ! इस पृथ्वी पर तुम्हारे सीधे साधे पुत्र तो बहुत से हैं, किन्तु उन सब में मैं ही अत्यंत चपल तुम्हारा बालक हूँ मेरे जैसा चंचल कोई विरला हि होगा. शिवे मेरा जो यह त्याग हुआ है, यह तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है; क्योकि संसार में कुपुत्र का होना संभव है, किन्तु कहीं भी कुमाता नहीं होती. ३

जगदम्ब ! माता, मैंने तुम्हारे चरणों की सेवा कभी नहीं की, देवि! तुम्हे अधिक धन भी समर्पित नहीं किया; तथापि मुझ जैसे अधम पर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो, इसका कारण यही है कि संसार में कुपुत्र पैदा हो सकता है परन्तु कहीं भी कुमाता नहीं होती. ४

 गणेश जी को जन्म देने वाली माता पार्वती! [ अन्य देवताओं की आराधना करते समय ] मुझे नाना प्रकार की सेवाओं में व्यग्र रहना पड़ता था, इसलिए पचासी वर्ष से अधिक अवस्था हो जाने पर आइने देवताओं को छोड़ दिया है, अब उनकी सेवा-पूजा मुझसे नहीं हो पाती; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलने की आशा नहीं है. इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्बरहित होकर किसकी शरण मैं जाउंगा. 5.

 माता अपर्णा ! तुम्हारे मन्त्र का एक अक्षर भी कान में पड़ जाय तो उसका फल यह होता है कि मुर्ख चांडाल भी मधुपाक के समान मधुर वाणी का उच्चारण करने वाला उत्तम वक्ता हो जाता है, दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्णमुद्राओं से संपन्न हो चिरकाल तक निर्भय विहार करता रहता है. जब मन्त्र के एक अक्षर श्रवण का ऐसा फल है तो जो लोग विधि पूर्वक जप में लगे रहते हैं, उनके जप से प्राप्त होने वाला उत्तम फल कैसा होगा ? इसको कौन मनुष्य जान सकता है. ६.

 भवानी ! जो अपने अंगों में चिता की राख-भभूत लपेटे रहते हैं, विष ही जिनका भोजन है, जो दिगंबरधारी ( नग्न रहने वाले ) हैं, मस्तक पर जटा और कंठ में नागराज वासुकि को हार के रूप में धारण करते हैं तथा जिनके हाथ में कपाल ( भिक्षापात्र ) शोभा पाता है, ऐसे भूतनाथ पशुपति भी जो एकमात्र 'जगदीश' की पदवी धारण करते हैं, इसका क्या कारण है? यह महत्त्व उन्हें कैसे मिला ; यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहण की परिपाटी का फल है; तुम्हारे साथ विवाह होने से हि उनका महत्त्व बाद गया. 7.

 मुख में चन्द्रमा की शोभा धारण करने वाली माँ ! मुहे मोक्ष की इच्छा नहीं है, संसार के वैभव की अभिलाषा नहीं हैं; न विज्ञान की अपेक्षा है; न सुख की आकांक्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म 'मृडाणी, रुद्राणी, शिव, शिव, भवानी' इन नामों का जप करते हुए बीते. 8

 माँ श्यामा ! नाना प्रकार की पूजन सामग्रियों से कभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी. सदा कठोर भाव का चिंतन करने वाली मेरी वाणी ने कौन सा अपराध नहीं किया है ! फिर भी तुम स्वयं ही प्रयत्न करके मुह अनाथ पर जो कुछ भी कृपा दृष्टि करती हो, माँ ! यह तुम्हारे हि योग्य है. तुम्हारे जैसी दयामयी माता ही मेरे जैसे कुपुत्र को भी आश्रय दे सकती है. 9

 माता दुर्गे ! करुनासिंधु महेश्वरी ! मैं विपत्तियों में फंसकर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ, इसे मेरी शठता न मान लेना; क्योंकि भूख प्यास से पीड़ित बालक माता का ही स्मरण करते हैं. 10

 जगदम्ब ! मुह पर जो तुम्हारी पूर्ण कृपा बनी हुई है, इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है, पुत्र अपराध पर अपराध क्यों न करता जा रहा हो, फिर भी माता उसकी उपेक्षा नहीं करती. 11

 महादेवि ! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है; ऐसा जानकार जो उचित जान पड़े, वह करो.12

Meaning of Stotra in Hindi-

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Tuesday, April 2, 2019

Shiv Panchakshara Stotram Lyrics शिव पंचाक्षर स्तोत्र



 Mantra: Shiv Panchakshari Stotra (Hindi)

शिव पंचाक्षर स्तोत्र की रचना आदि शंकराचार्य ने की थी. भगवान शिव के पंचाक्षरी (पांच अक्षर वाले) मन्त्र "ॐ नमः शिवाय" मन्त्र पर आधारित इस स्तोत्र से शंकराचार्य भगवान् की स्तुति करते हैं और इस मन्त्र के महत्त्व को बताते हैं. इस स्तोत्र के मन्त्र हिंदी अर्थ सहित यहाँ दिए गए हैं--

।अथ शिव पंचाक्षर स्तोत्रम।
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय।।१।।

जो नागेंद्र ( नागराज ) को हार स्वरुप धारण  करते हैं, जो त्रिलोचन ( तीन नेत्रों वाले ) हैं, जो भस्म से अलंकृत हैं, उन महेश्वर, नित्य, शुद्ध, दिगंबर ( जिसका अम्बर दिशाओं के सिवा कुछ न हो ), 'न' अक्षर के द्वारा विदित स्वरुप को नमस्कार है।

मन्दाकिनी सलिल चन्दनचर्चिताय, नन्दीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय।
मन्दार पुष्पबहुपुष्प सुपूजिताय, तस्मै मकाराय नम: शिवाय।।२।।

मन्दाकिनी ( गंगाजल ) और चन्दन से जिनकी अर्चना होती है, मंदार और अन्यान्य पुष्पों से जिनकी सुन्दर पूजा हुई है, उन नंदी के अधिपति और प्रमथगणों के स्वामी महेश्वर 'म' कार स्वरुप भगवान शिव को नमस्कार है।

शिवाय गौरी वदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वर नाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय, तस्मै शिकाराय नम: शिवाय।।३।।

जो कल्याण स्वरुप हैं, जो पार्वती जी के मुख कमल को प्रसन्न करने के लिए जो सूर्य देव के सामान हैं , जो राजा दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं, जो वृषध्वज हैं ( जिनकी ध्वजा पर बैल का चिन्ह है ) उन शोभावान श्री नीलकंठ 'शि' कार स्वरुप शिव को नमस्कार है।

वसिष्ठकुम्भोद्भव गौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चित शेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानर लोचनाय, तस्मै वकाराय नम: शिवाय।।४।।

वसिष्ठ, कुम्भोद्भव ( घड़े से उत्पन्न होने वाले अगस्त्य मुनि ), गौतम आदि मुनियों और इन्द्रादि देवताओं के द्वारा अर्चित ( पूजित ), चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि जिनके तीन नेत्र हैं, उन 'व' कार स्वरुप शिव को नमस्कार है।

यक्षस्वरूपाय जटाधराय, पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय, तस्मै यकाराय नम: शिवाय।।५।।

जिन्होंने यक्ष रूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जो हाथ में पिनाक ( धनुष ) धारण किये हैं, उन दिव्य देव, दिगंबर 'य' कार स्वरुप शिव को नमस्कार है।

पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेच्छिव सन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।।

जो कोई शिव के इस पंचाक्षर मन्त्र का नित्य पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त कर शिव जी के साथ आनंदित होता है।

।इति श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्रम सम्पूर्णम।

Shiv Panchakshar stotram English Lyrics-

Naagendra Haray Trilochanaay,
Bhasmang Ragay Maheshwaray,
Nityaay shudhhay digambaraay,
Tasmai na karay namah Shivaay.1.

Mandakini Salila chandan Charchitaay,
Nandishwar Pramathnath maheshwaraay,
Mandaar pushpa bahupushpa supujitaay,
Tasmai ma kaaray namah Shivaay.2.

Shivaay gouri vadanabj vrind,
Suryaay dakshadhwar naashkaay,
shri nilkanthaay vrishdwajaay,
Tasmai shi karay namah Shivaay.3.

Vashishth Kumbhodbhav goutamaary,
Munindra Devarchita shekharaay,
Chnadrark Vaishwa Naralochanaay,
Tasmai va karay Namah Shivaay.4.

Yaksha swarupaay Jatadharaay,
Pinaak hastaay Sanatanaay,
Divyaay Devaay digambaraay,
Tasmai ya karay namah Shivaay.5.

Panchaksharmidam punyam yah pathechhiv Sannidhhou,
Shivlokama vaapnoti Shiven Sah Modate.

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Tuesday, March 26, 2019

Shri Suktam in Sanskrit, Hindi श्री सूक्त अर्थ सहित

श्री सूक्त 'पञ्च सूक्तों' में से एक है, ( पंच सूक्त - पुरुष सूक्तम, विष्णु सूक्तम, श्री सूक्तम, भू सूक्तम, नील सूक्तम )। देवी महालक्ष्मी को समर्पित यह स्तोत्र ऋग्वेद से लिया गया है। देवी की कृपा से सुख प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। यहाँ श्री सूक्त हिंदी और english में अर्थ सहित ( with meaning ) दिया गया है।

यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि श्री सूक्त तीन प्रकार से मिलते हैं जिनमे कुछ श्लोकों का और इनकी रचना के समय का अंतर है। प्रमुख रूप से इस स्तोत्र के तीन प्रकार हैं -
1. पहले प्रकार में श्लोक १-१५  तक है, यह प्राचीन और मूल स्तोत्र है।
2. दूसरे प्रकार में 1-29 श्लोक हैं।
3. तीसरा प्रकार श्री सूक्त का नवीनतम रूप है जिसमे लगभग 37 श्लोक हैं।

इस page पर श्री सूक्तम का दूसरा प्रकार दिया गया है जो Divyajivan.org से लिया गया है।

Shri Suktam in hindi -

।। अथ श्री सूक्तम् ।। 

 ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह।१।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ।२।

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीर्जुषताम ।३।

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्दा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।४।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।५।

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः।६।

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मिराष्ट्रेऽस्मिन कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।७।

क्षुप्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाश्याम्यहम।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात।८।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरी सर्वभूतानांतामिहोपह्वये श्रियम।९।

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः।१०।

कर्दमेन प्रजाभूता मयि संभव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम।११।

आपः सृजन्तु स्नि-ग्धानि चिक्लीत वस् में गृहे।
निच देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।१२।

आर्द्रां पुष्करिणीम पुष्टिंपिँगलां पद्ममालिनीं।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह।१३।

आर्द्रां यःकरिणींयष्टिं सुवर्णा हेममालिनीं।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह।१४।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्र्वान् विन्देयं पुरुषान्हम्।१५।

यः शुचि प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्।१६।

पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम।१७।

अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे।१८।

पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयिसन्निधत्सव।१९।

पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मन्तं करोतु मे।२०।

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो वृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु मे।२१।

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः।२२।

न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तम जपत्।२३।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्य शोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यं।२४।

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधव प्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्।२५।

महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।।२६।।

श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धान्यं धनं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः।२७।

पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्सव।२८।

श्रिये जात श्रिय आनिर्याय श्रियं वयो जनितृभ्यो दधातु।
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन् भजन्ति सद्यः सवितो विदध्यून्।२९।

श्रिय एवैनं तच्छ्रियामादधाति।
सन्ततमृचा वषट्कृत्यं संधत्तं संधीयते प्रजया पशुभिः य एवं वेद।३०।

ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात।३१।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

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Thursday, January 3, 2019

Aditya Hridaya Stotra lyrics in hindi आदित्य हृदय स्तोत्र

Aditya hrudayam
आदित्य ह्रदय स्तोत्र अगस्त्य ऋषि की रचना है और भगवान सूर्य को समर्पित यह स्तोत्र शक्ति और बुद्धि का संचार करने वाला है यह स्तोत्र मुनि अगस्त्य ने, जब भगवान् श्री राम युद्ध से थककर खड़े थे, तब श्री राम से कहा था। इस स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन सुबह सूर्योदय के समय में करना सबसे अच्छा माना जाता है . आदित्य ह्रदय की lyrics यहाँ दी गयी है इसी के साथ इस स्तोत्र की english lyrics भी नीचे दी गयी है।

Aditya Hridaya Stotra ( Aditya hrudayam ) lyrics in Hindi / sanskrit-

विनियोगः
ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुपछन्दः, आदित्येहृदयभूतो भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।।

ध्यानम्-
नमस्सवित्रे जगदेक चक्षुसे,
जगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवे,
त्रयीमयाय त्रिगुणात्म धारिणे,
विरिञ्चि नारायण शङ्करात्मने।।

।। अथ आदित्य हृदय स्तोत्रम ।।

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ।।१।।
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्या ब्रवीद्रामम् अगस्त्यो भगवान् ऋषिः ।।2।।

उधर थककर चिंता करते हुए श्री राम जी रणभूमि में खड़े थे, उतने में रावण भी  युद्ध के लिए उनके सामने आ गया। यह देखकर अगस्त्य मुनि श्री राम चंद्र जी के पास गए और इस प्रकार बोले।।

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि ।।3।।
आदित्य हृदयं पुण्यं सर्वशत्रु विनाशनम् ।
जयावहं जपेन्नित्यम् अक्षय्यं परमं शिवम् ।।4।।

सभी के हृदय में रमण करने वाले ( बसने वाले ) हे महाबाहो ( लम्बी भुजाओं वाले ) राम ! यह गोपनीय स्तोत्र सुनो। इस स्तोत्र के जप से तुम अवश्य ही शत्रुओं पर विजय पाओगे।। यह आदित्य ह्रदय स्तोत्र परम पवित्र और सभी शत्रुओं का विनाश करने वाला है। इसके जप से सदा ही विजय की प्राप्ति  होती है। यह नित्य अक्षय तथा परम कल्याणकारी स्तोत्र है।।

सर्वमङ्गल माङ्गल्यं सर्व पाप प्रणाशनम्।
चिन्ताशोक प्रशमनम् आयुर्वर्धन मुत्तमम् ।।5।।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुर नमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ।।6।।

 यह सभी मंगलों में भी मंगल और सभी पापों का नाश करने वाला यह स्तोत्र चिन्ता और शोक को मिटाने वाला और आयु को बढ़ाने वला है।। जो अनंत किरणों से शोभायमान ( रश्मिमान ), नित्य उदय होने वाले ( समुद्यंत ), देवों और असुरों दोनों के द्वारा नमस्कृत हैं, तुम विश्व में अपनी प्रभा ( प्रकाश ) फैलाने वाले संसार के स्वामी ( भुवनेश्वर ) भगवान् भास्कका पूजन करो।। 

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।
एष देवासुर गणान् लोकान् पाति गभस्तिभिः ।।7।।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ।।8।।

सभी देवता इनके रूप हैं, ये देवता ( सूर्य ) अपने तेज और किरणों से जगत को स्फूर्ति प्रदान करते हैं। ये ही अपनी किरणों ( रश्मियों ) से देवता और असुरगण आदि सभी लोकों का पालन करते हैं।। ये ही ब्रह्मा, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, समय, यम, चन्द्रमा, वरुण आदि को प्रकट करने वाले हैं।।

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः ।
वायुर्वह्निः प्रजाप्राणः ऋतुकर्ता प्रभाकरः ।।9।।
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुः हिरण्यरेता दिवाकरः ।।10।।

ये पितरों, वसु, साध्य, अश्विनीकुमारों, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण और ऋतुओं को जन्म देने वाले प्रभा के पुंज हैं। इनके नाम आदित्य, सविता ( जगत को उत्पन्न करने वाले ), सूर्य (सर्व व्याप्त), खग, पूषा, गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश, भानु, हिरण्येता, दिवाकर और।।

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्ति-र्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भुः त्वष्टा मार्ताण्डको‌ऽशुमान् ।।11।।
हिरण्यगर्भः शिशिरः तपनो भास्करो रविः ।
अग्निगर्भो‌दितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः ।।12।।

हरिदश्व, सहस्रार्चि, सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले ), मरीचिमान (किरणों से सुशोभित ), तिमिरोमन्थन (अंधकार का नाश करने वाले ), शम्भु, त्वष्टा, मार्तन्डक, अंशुमान, हिरण्यगर्भ, शिशिर ( स्वाभाव से सुख प्रदान करने वाले ), तपन ( गर्मी उत्पन्न करने वाले ), भास्कर, रवि, अग्निगर्भ, अदितीपुत्र, शङ्ख, शिशिरनाशन (शीत का  करने वाले ) और।।

व्योमनाथ स्तमोभेदी ऋग्यजुःसाम-पारगः ।
धनावृष्टि-रपां मित्रो विन्ध्यवीथी प्लवङ्गमः ।।13।।
आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः ।।14।।

व्योमनाथ, तमभेदी, ऋग यजु और सामवेद के पारगामी, धनवृष्टि, अपाम मित्र ( जल उत्पन्न करने वाले ), विन्ध्यवीथिप्लवंग (आकाश में तीव्र गति से चलने वाले ), आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल ( जिनका भूरा रंग है ), सर्वतापन (सभी को तप देने वाले ), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सब की उत्पत्ति के कारण ) हैं।।

नक्षत्र ग्रह ताराणाम् अधिपो विश्वभावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्-नमोऽ‌स्तु ते ।।15।।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ।।16।।

नक्षत्र, ग्रह और तारों के अधिपति, विश्वभावन ( विश्व की रक्षा करने वाले ), तेजस्वियों में भी तेजस्वी और द्वादशात्मा को नमस्कार है।। पूर्वगिरि उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों ( तारों और ग्रहों ), के स्वामी तथा दिन के अधिपति को नमस्कार है।।

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ।।17।।
नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः ।।18।।

जो जय के रूप हैं, विजय के रूप है, हरे रंग के घोड़ों से युक्त रथ वाले भगवान् को नमस्कार है। सहस्रों किरणों से प्रभावान आदित्य भगवान को बारम्बार नमस्कार है।। उग्र, वीर तथा सारंग सूर्य देव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचंड तेज वाले मार्तण्ड को  नमस्कार है।।

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्य-वर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ।।19।।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नाया मितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ।। 20।।

आप ब्रम्हा, शिव  विष्णु के भी स्वामी हैं, सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है आप प्रकाश  से परिपूर्ण हैं। सबको स्वाहा करने वाली अग्नि स्वरुप हे रौद्र रूप आपको नमस्कार है।। अज्ञान, अंधकार के नाशक, शीत  के निवारक तथा शत्रुओं के नाशक आपका रूप अप्रमेय है। कृतघ्नों का नाश करने वाले देव और सभी ज्योतियों के अधिपति को नमस्कार है।।

तप्त चामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमो‌ऽभि निघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ।। 21।।
नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ।। 22।।

आपकी प्रभा तप्त स्वर्ण के समान है आप ही हरि ( अज्ञान को हरने वाले ), विश्वकर्मा ( संसार की रचना करने वाले ), तम ( अँधेरा ) के नाशक, प्रकाशरूप और जगत के साक्षी आपको नमस्कार है।
हे रघुनन्दन, भगवान् सूर्य देव ही सभी भूतों का संहार, रचना और पालन करते हैं। यही देव अपनी रश्मि (किरणों ) से तप ( गर्मी ) और वर्षा  हैं।।

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्नि होत्रिणाम् ।। 23।।
वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः ।।24।। 

यही देव सभी भूतों में अन्तर्स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं, यही अग्निहोत्री कहलाते हैं और अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।
ये ही वेद, यज्ञ और यज्ञ से मिलने वाले फल हैं, यह देव सम्पूर्ण लोकों की क्रियाओं का फल देने वाले हैं।।

फलश्रुति

एन मापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्-नावशीदति राघव ।।25।।
पूजयस्वैन मेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ।।26।।

राघव! विपत्ति में, कष्ट में, कठिन मार्ग में और किसी भय के समय जो भी सूर्य देव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं सहना ( भोगना ) पड़ता।
तुम एकाग्रचित होकर इन जगतपति देवादिदेव का पूजन करो, इसका ( आदित्य हृदय स्तोत्र ) तीन बार जप करने से तुम अवश्य ही युद्ध में विजय पाओगे।।

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि ।
एवमुक्त्वा तदागस्त्यो जगाम च यथागतम् ।।27।।
एतच्छ्रुत्वा महातेजाः नष्टशोको‌ऽभवत्-तदा ।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ।।28।।

हे महाबाहो ! इसी क्षण तुम रावण का वध कर सकोगे, इस प्रकार मुनि अगस्त्य जिस प्रकार आये थे उसी प्रकार लौट गए।
तब इस प्रकार [अगस्त्य मुनि का उपदेश ] सुनकर महातेजस्वी राम जी का शोक दूर हो गया, प्रसन्न और प्रयत्नशील होकर।।

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ।।29।।
रावणंप्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत् ।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतो‌ऽभवत् ।।30।।

परम हर्षित और शुद्धचित्त होकर उन्होंने भगवान सूर्य की ओर देखते हुए तीन बार आदित्य ह्रदय स्तोत्र  का तीन बार जप किया।
तत्पश्चात राम जी ने धनुष उठाकर युद्ध के लिए आये हुए रावण को देखा और उत्साह से भरकर सभी यत्नो से रावण के निश्चय किया।।

अथ रविरवदन्-निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।
निशिचरपति सङ्क्षयं विदित्वा सुरगण मध्यगतो वचस्त्वरेति।।३१।।

तब देवताओं के मध्य में खड़े हुए सूर्य देव ने प्रसन्न होकर श्री राम की ओर देखकर निशाचराज ( राक्षस के राजा ) के विनाश का समय निकट जानकर प्रसन्नता पूर्वक कहा "अब जल्दी करो"।।

।। इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मिकीये आदिकाव्ये युद्दकाण्डे पञ्चाधिक शततम सर्गः।। 


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